आँगन में धूप उतर रही है |
कोहरे के पर कुतर रही है ||
रंग और कूँची तैयार रखो,
एक नई तस्वीर उभर रही है ||
आओ, बात करें बातें बनायें,
बरसों से जो बिगड़ रही है ||
यकीनन मिटेंगे फासले अब,
हवा की फ़ितरत बदल रही है ||
मत आँक वजूद गुजरे वक़्त से,
सूरते-ज़िंदगी सुधर रही है ||
थक-हारकर न बैठ ओ ‘माही’,
अब मंज़िलें इधर-उधर रही है ||