जो शहर था मेरा सहरा हो गया है
किसके कान में चीख़ें के वज़ीर भी बहरा हो गया है
हैवानों ने जला डाले बच्चों के स्कूल भी
कुछ देर की थी रोशनी मुस्तक़िल अँधेरा हो गया है
हर समत हर शख़्स में रावण नज़र आता है
मैं ये कैसे मान लूँ के मुकम्मल दशहरा हो गया है
थक चुकी है वो समाज को जवाब देते देते
जिस्म के ज़ख़्म तो भरे आत्मा का गहरा हो गया है
और अभी तक अँधेरा है ग़रीब के घर में
कैसे मैं कह दूँ के सवेरा हो गया है