मेरी गली से जो तू गुजरने लगी है
तुझको पाने की आरज़ू करने लगी है ।
जबसे हुई है रूबरू तू मुझसे
रूप से और भी निखरने लगी है ।
चल जो तू पड़ा पैसों की राह पर
आदमियत तेरी अब मरने लगी है ।
अब्तर हो गया शहर मिरा दंगे में
देखकर आँख मेरी झरने लगी है ।
न आता कोई अब हिफाज़त को
हर रोज़ इक सीता हरने लगी है ।
लोग जोड़ते है नाम उसका मुझसे
बात उसको भी ये अखरने लगी है ।
उड़ाती थी कभी पंछियो को पिंजरे से
आज क्यू पर उनके ही कतरने लगी है ।
खाई थी कश्मे जिसने साथ चलने की रिशु
गर्दिश में देख बात से वो मुकरने लगी है ।