संभल गिर के

हर सुबह बंधती है उम्मीद, जो शाम सूरज के साथ ही ढलती है ,
बरसो  से, तेरी ज़िंदगी, राज, बस, इसी ढर्रे पे ही, तो, चलती  है,
 
कुछ और, तो, बाकि बचा, बस में तेरे, लगता नहीं, इस, दौर में,
तो, मासूम के मुंह से, बस, इक ठंडी आह, हर दफे, निकलती है,
 
पर ग़म न कर ऐ दोस्त यंहा ज़िंदगी अपनी ऐसे ही निकलती है ,
कभी हम इसके पीछे चलते हैं, तो कभी ये अपने पीछे चलती हैं,
 
उम्मीद का दामन तुझे थामे रखना है हर हाल ये जान ले , राज,
की सबसे उनकी छोटी की बर्फ भी इक न इक दिन  पिघलती है  ,
 
गिर के, उठ के, चलने का इस ज़िंदगी में अपना ही मज़ा है राज,
कि वही ही असली ज़िंदगी, जो हर मुकाम तेरी तरह संभलती है  
 
हर सुबह बंधती है उम्मीद, जो शाम सूरज के साथ ही ढलती है ,
बरसो  से, तेरी ज़िंदगी, राज, बस, इसी ढर्रे पे ही, तो, चलती  है !!


तारीख: 17.06.2017                                    राज भंडारी









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