उनकी जुस्तजू के आईने में, लहू के रंगों सजी थी रात
मेरी प्यास में तड़प नहीं, कुछ गुजरते बादल कह गये
सरे-बाज़ार चर्चा-ए-आम थी, उनकी पारखी नजरों की
रातों जगी मैं उनके लिए, वे आए और पागल कह गये
तेरा जाना यूं तो लाजमी था, पर पत्ते जो शाख से छुटे
हूक सी उठी और आंसूओं में डूब कर आँचल ढह गये
यादों के दरिया में, मुहब्बतों की सेज दोशीज़ा ही रही
नैन हुए सुहागन, पर शबनम के साथ काजल बह गए
है मेरी नजरों में जिंदा, तमाम मंजर-ऐ-सफर चाहत के
छूट गयी पीछे मंजिलें, रहगुज़र के लूटे घायल रह गये
आसमां सजदा करने उतरा, देख मेरी वफा की इंतहा
तेरे हाथों तुझसे कत्ल हुए और तेरे ही का़यल रह गए
**दोशीज़ा - कुँवारी