जर्जर झोपड़ी की छत के सुराग से
बेबस लाचारी अंदर झाँक रही थी
दहलीज़ पर पसरी बेचारी तकदीर
सात पीढ़ियों से धूल फांक रही थी
नीम पर बैठी नन्ही गौरैया दाने को
निर्धन के आँगन को ताक रही थी
अशक्त अर्थशास्त्र की क्षीण नज़रें
उसकी अर्तव्यवस्था आंक रही थी
काल-चक्र की शिथिल गति धीरे से
उसकी उधड़ी गरीबी टांक रही थी
वृद्ध झुर्रियों में सिमटी मौन मुस्कान
ऊँघती मुफ़लिसी को ढांक रही थी
भूख और प्यास की असहाय गाडी
बूढ़ा गयी ज़िन्दगी को हाँक रही थी