सोशल-मिडीया और सामाजिकता के बदलते आयाम

अनादिकाल से ही मनुष्य सामाजिक प्राणी माना जाता रहा हैं। क्योंकि ज़िंदा रहने के लिए भले ही रोटी -कपडा -मकान की ज़रूरत होती हो लेकिन औकात में रहने के लिए शुरू से ही समाज की ज़रूरत महसूस की जाती रही है। भले ही कालांतर में असामाजिक तत्व और असामाजिक घटनाये महामारी की तरह बढ़ी हो लेकिन फिर भी इससे मनुष्य के सामाजिक होने के तमगे को कोई नुकसान नहीं पहुँचा है क्योंकि बचपन से लेकर लड़कपन तक मनुष्य ने अपने सयानेपन से पहले ही ये “सीन” भांपकर अपनी सामाजिकता को असामाजिकता की महामारी से बचाने के लिए “वैक्सीन” के इंजेक्शन दे रखे है। 9 महीने तक इंसान अपनी माँ की “गर्भनाल” से जुड़ा रहता हैं और फिर उसकी नाल अपने पूरे परिवार से जुड़ जाती है। मतलब हम शुरू से “सड्डे-नाल” का महत्व समझते रहे है. 

हर प्राणी अपने जैसे ही दूसरे प्राणियों के बीच में रहना चाहता है, चाहे इंसान हो या पशु। लेकिन मनुष्य जन्म 84 योनियो के बाद मिलता है इसलिए मनुष्य का दिमाग रिक्त नहीं होता है और उसके पास कुछ अति(रिक्त)योग्यताए और विशेषताए भी होती है , जैसे इंसान होते हुए भी वो पशुतापूर्ण हरकते कर लेता है और “इनसेन” (insane) होने के साथ -साथ इंसान भी कहलाता है। समाज में रहकर इंसान ने शुरू से ही ऊँचे नैतिक मूल्यों की स्थापना का प्रयास किया है , न केवल इसलिए की इससे सम्पूर्ण समाज का विकास किया जा सके बल्कि इसलिए भी की ज़रूरत पड़ने पर उनका प्रयोग घर के बल्ब बदलने और जाले साफ़ करने में भी हो सके। लोभ , मोह , माया , जातिगत भेदभाव और भ्रष्टाचार में रत होते हुए भी मनुष्य सदियो से इन नैतिक मूल्यों की स्थापना और उत्थान हेतु प्रयासरत है क्योंकि जैसे कमल, कीचड में ही खिल सकता है, वैसे ही उच्च सामाजिक नैतिक मूल्यों की स्थापना , “नीलकंठ” को याद करते हुए इन बुराइयो में “आकंठ” डूबे रहने से ही हो सकती है। 

पिछले कुछ समय से नैतिक और पारिवारिक मूल्यों में गिरावट आई है , लगता है नैतिक और पारिवारिक मूल्यों का उठना -बैठना ज़रूर “रुपये” के साथ रहा होगा। अगर उनका उठना -बैठना पेट्रोल -डीजल के साथ होता तो ये मूल्य भी अभी मंगल गृह पर इसरो द्वारा छोड़े गए सैटेलाइट्स को पानी पिला रहे होते। पहले परिवार से ही संसार माना जाता था लेकिन “मॉडर्न” बनकर ही सबकुछ “डन” समझने वाला मनुष्य, आधुनिकता से मोक्ष प्राप्तकर अब संसार में सार नहीं मानता है। इंसान पहले हर “वार” अपने परिवार के साथ गुजारता था लेकिन आधुनिकता के हथोड़े ने पहला “वार”, परिवार पर ही किया और अब इंसान के पास कार तो है लेकिन परिवार नहीं। ये हमारे संस्कारो की ही बलिहारी है की हम गिरते हुए मूल्यों को नहीं उठा रहे है क्योंकि हम गिरती हुई चीज़ नहीं उठाते है और जो ऊपर उठ रहा है उसमे अपनी टाँग फंसाकर उसे भी नीचे लाने का प्रयास करते रहते है। दरअसल न्यूटन के गुरत्वाकर्षण की खोज में केवल नीचे गिरती हुई “एप्पल” का ही योगदान नहीं था बल्कि हमारी नीचे गिरती हुई सोच का भी उतना ही योगदान था। 

हर सिक्के के दो पहलु होते है बशर्ते वो “शोले” का सिक्का ना हो। अतः गिरे हुए नैतिक मूल्यो ने “माउस” के साथ मिलकर उसके नुकीले दांतो ( जो खाने और दिखाने के अलग अलग नहीं होते है) की मदद से गुम हो चुकी सामाजिकता को सोशल मीडिया के माध्यम से फिर से कुरेदने का प्रयास किया है. पिछले कुछ वर्षो में सोशल मीडिया (फेसबुक /ट्विटर /वाटस एप ) ने सामाजिकता को नए आयाम (प्र)दान किये है। फर्क केवल इतना आया है की पहले लोग समय निकालकर हर आयोजन पर अपने मित्रो और रिश्तेदारो से मिलते थे और अब जेब से मोबाइल निकालकर उनसे वाटस एप और फेसबुक पर मिलते है। पहले नियमित रूप से रूप निखारकर कर हर मांगलिक और शुभ कार्यो में मिलने से पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्ध प्रगाढ़ होते थे लेकिन अब उन्ही रिश्तो में गर्माहट बनाये रखने के लिए फेसबुक की भट्टी में नियमित रूप से लाइक और कमेंट्स का ईंधन डालना पड़ता है। किसी प्रिय रिश्तेदार की पोस्ट या फोटो पर आपका लाइक केवल माउस का क्लिक या स्मार्ट फ़ोन का टच मात्र नहीं है बल्कि वो तो रिश्तो की जमा पूंजी है। कुछ लोग तो इतने मिलनसार होते है की आपके लाइक करने मात्र से उनको गले मिलने की फीलिंग आ जाती है। लेकिन अगर उनकी हर पोस्ट पर आपका लाइक पहुँचने लगे तो ये फीलिंग “गले मिलने” से “गले पड़ने” वाली भी हो सकती है। रुतबा केवल अब गाडी -बंगला और रुपए -पैसे से नहीं आँका जाता है , फेसबुक पर आपकी पोस्ट्स पर क्विंटल के भाव से आने वाले लाइक और कमेंट्स आपको समाज का आक़ा बना सकता है और यही लाइक और कमेंट्स अमीर लोगो को भी डिजिटल दरिद्रता का अनुभव करा देते है। 

जो दोस्त पहले हाथो में हाथ डाल कर चलते थे और मिलने पर गलबहिया करते थे ,उनकी “बहिया” अब फेसबुक पर खुल रही है और वो अब फेसबुक पर एक-दूसरे को अपनी हर पोस्ट और फोटो में टैग करके डिजिटल नजदीकी का अहसास कर धन्य महसूस करते और कराते है. जो लोग पहले गली -नुक्कड़ और चौराहों पर चाय पर चर्चा और खर्चा करके महफ़िल जमाते थे वहीँ लोग अब 10 -15 वाटस एप ग्रुप्स के एडमिन बनकर लोगो का अकेलापन और चैन दोनों दूर कर रहे है। वाटस एप पर सक्रीय लोगो का मानना है की केवल किसी बड़े वाटस एप ग्रुप में बने रहने मात्र से कोई भी व्यक्ति अपने पर सामाजिक होने का लेबल चस्पा नहीं कर सकता है। कोई भी इंसान सामाजिकता की तरफ पहला कदम तब बढ़ाता है जब वो किसी बड़े वाटस ग्रुप में बने रहकर भी ग्रुप नोटिफिकेशन ऑफ नहीं करता है। अपनी ज़िन्दगी में भले ही कुछ भी “सीन” चल रहा हो लेकिन कुछ लोगो को दूसरो का “लास्ट -सीन” देखे बिना चैन नहीं पड़ता है ।

स्वदेशी प्रिय लोग ,सोशल मीडिया पर भी स्वदेशी उत्पादों की क्रांति को बेक़रार होते हुए बरक़रार रखे हुए है लेकिन हद तो जब हो जाती है जब विदेशी वाटस एप से मैसेज भेज करके “सैलरी -हाईक” का इंतज़ार कर रहे लोगो को (वाटस एप अनइंस्टॉल कर ) स्वदेशी “हाईक” इनस्टॉल करने की सलाह दी जाती है . जो लोग बरसो से अपनी गली छोड़कर दूसरी गली में नहीं गए वो लोग अपने घर के एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने पर भी फेसबुक पर चेक-इन करने लगते है। कुछ लोग तो “चेक- इन” करने के इतने शौक़ीन होते है की अगर इनके मोबाइल फेसबुक एप में चेक -इन फंक्शन काम ना कर रहा हो तो इनका कही जाने का मन ही नहीं करता है , इनके घर में कोई शादी होने पर ये बारातियो का स्वागत “पान पराग” से नहीं बल्कि मंडप में चेक -इन करवा कर करते है। कुछ लोग तो अगर सप्ताह में दो -तीन बार एयरपोर्ट का चेक -इन ना करले तो इन्हें चैन ही नहीं पड़ता और अगर इनके चेक-इन्स पर “लव और वाओ” वाले रिएक्शन ना आए तो इनके मुँह से झाग आने लगते है। जिससे इनकी चेक -इन वाली पोस्ट लाइक ना करने वालो के पाप धूल जाते है। इस “डिजिटल -सामाजिकता” के युग में ईमानदारी आज भी ज़िंदा है ,इसीलिए कुछ लोग केवल तभी एयरपोर्ट पर चेक -इन करते है जब वो वास्तव में वहाँ होते है। 

जो लोग टीवी चालू करने के लिए कमरे में पड़ा रिमोट नहीं देख पाते और जिन लोगो की पास और दूर दोनों की नज़र कमजोर होती है वो लोग भी फेसबुक पर ,वादे पूरे ना होने पर सरकार को देख लेने की धमकी देते है। सड़को पर की जाने क्रांतिया अब भ्रांतिया बनकर फेसबुक और ट्विटर पर “डिजिटल कैबरे” कर रही है। इन डिजिटल क्रांतियों की ज्वाला (गुट्टा नहीं) कभी बुझने ना पाये इसलिए हर खेमे के लोग इसमें रोज़ “आउटरेज रूपी” तेल डालते रहते है। जो लोग कभी सुबह अलार्म के बजने पर भी नहीं जग पाते, ज़्यादातर वहीँ लोग फेसबुक /ट्विटर पर क्रांतियों की अलख जगा रहे है। 

बिना दूरबीन से देखे ही डिजिटल सामाजिकता का स्कोप बहुत दूर तक नज़र आ रहा है लेकिन इस “स्कोप” का समाज पर क्या “कोप” होगा और इस “कोप”से समाज कैसे “कोप” (cope) करेगा इसे खुद समाज को देर -सवेर (स्काइप पर ) देखना ही होगा वरना हम और हमारा समाज “वेब-कूफ ” कहलायेगा। 


तारीख: 08.06.2017                                    अमित शर्मा 









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है