प्रशंसा पुराण

अक्सर कहा जाता है कि प्रशंसा करके आप किसी का भी दिल जीत सकते है लेकिन केवल दिल जीतने का लक्ष्य रखकर प्रशंसा करना ठीक वैसा ही है जैसे जिओ के फ्री और अनलिमिटेड डेटा का इस्तेमाल केवल ईमेल चेक करने के लिए करना। प्रशंसा एक महान और पवित्र कर्म है, केवल दिल जीतने  जैसे गौण और तुच्छ कार्य के लिए इसका दुरुपयोग करना प्रशंसक की अकुशलता और कुशलता से प्रशंसा ना कर पाने कि कहानी बयान करता है। प्रशंसा एक साधना है जिसे अच्छे से साध ना होता है। इस क्षेत्र में अपार संभावनाए है लेकिन दुर्भाग्य से अब तक किसी भी सरकार ने इस तरफ ढांचागत पहल करके इसे संस्थागत स्वरुप प्रदान नहीं किया है। वर्तमान सरकार को चाहिए की वो मन की बात सुनना बंद करे और प्रशंसा की सुनकर इसे स्किल इंडिया के तहत प्रोत्साहन देकर देश में पेशेवर प्रशसंको की खेप तैयार करे। देश में आज प्रशासको से ज़्यादा प्रशंसको की पूछ है।

सयाने लोग कहते है, "सर्दी-खांसी में हल्दी और प्रशंसा में जल्दी अक्सर फायदेमंद होती है।" दरअसल तारीफ की तशरीफ़ बहुत हल्की होती है सब उसे अपनी गोद में बिठाने को तैयार रहते है। किसी की तारीफ करके इंसान भविष्य में उससे अपनी तरफदारी का बीमा करवा लेता है। प्रशंसा का प्रस्फुटन दिल से होना चाहिए लेकिन आजकल प्रशंसा के बीज, फायदे का व्यापार करने के लिए दिमाग में बोये जाते है। तारीफ वह टॉनिक है जो इंसान बिना किसी अटक के गटक लेता है। कुछ समाजवादी लोग चापलूसी को ही प्रशंसा समझने लगते है लेकिन हकीकत में चापलूसी, प्रशंसा का पायरेटेड वर्जन है, चापलूसी और प्रशंसा में उतना ही अंतर है जितना  कि देसी घी और डालडा घी में होता है। इसलिए ध्यान देने वाली बात है कि चापलूसी करके जो बिना अंगुली टेढ़ी करे ही घी निकाल लेते है उन्हें पता नहीं होता की उन्होंने डालडा घी निकाला है।

पीने के पानी के लिए इंसान RO और फ़िल्टर लगाकर उसकी शुद्धता तय करता है लेकिन प्रशंसा के मामले में इंसान उसकी पवित्रता और शुद्धता के बारे निश्चिंत होता है, उसका मन अपनी प्रशंसा में किसी भी तरह की मिलावट मानने की गवाही नहीं देने को तैयार नहीं होता है। कोई कहे या ना कहे लेकिन सबके  मन की बात यही होती है कि प्रशंसा पाना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। प्रशंसा चाहे किसी भी दिशा से टपके या झड़े, इंसान हर दशा में बिना झिझके उसे लपक लेता है। अपनी आलोचना में इंसान काफी सतर्क होता है उसने तर्क ढूंढता है लेकिन प्रशंसा में वो तर्क-वितर्क छोड़कर सारे गिले शिकवे भूलकर उससे गले मिल लेता है। कुछ स्वावलंबी लोग प्रशंसा के मामले में आत्मनिर्भर होते है, उन्हें अपनी प्रशंसा के लिए दूसरो का मुँह ताकना पसंद नहीं होता है वो खुद अपनी तारीफ़ कर ना केवल दूसरो पर दबाव कम करते है बल्कि हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा भी देते है।

कुछ मामलो में तारीफ़ चॉइस ना होकर Compulsion(विवशता) होती है जैसे बॉस और बीवी/गर्लफ्रेंड की तारीफ़। इस मार्ग की सारी लाइन्स चाहे कितनी भी व्यस्त और वन साइडेड क्यों ना हो आपको हमेशा समय पर पहुँचना होता है। बॉस की प्रशंसा भविष्य में आपकी अनुशंसा का टिकट कटवा सकती है और  बीवी/गर्लफ्रेंड की प्रशंसा में कोताही आपका पत्ता भी कटवा सकती है। प्रशंसा एक सतत कर्म है, केवल अच्छाई की प्रशंसा करना एक अच्छे प्रशंसक की निशानी नहीं है। प्रशंसा धर्म खतरे में ना पड़े इसलिए आवश्यक है की बुराई की भी उतनी ही शिद्दत से प्रशंसा की जाए। अच्छाई और बुराई केवल देखने वाले के नज़रिए पर निर्भर करती है जबकि प्रशंसा अपने आप मे निरपेक्ष और निष्पक्ष होती है वो किसी एक का पक्ष नहीं ले सकती है दोनों ही स्थितियों में उसे अपने कर्तव्य को निभाना होता है। राह कितनी भी पथरीली क्यों ना हो प्रशंसा को अच्छाई और बुराई रूपी दोनों पहियो पर सवार हो कर अपने लक्ष्य तक पहुँचना होता है।


तारीख: 19.09.2017                                    अमित शर्मा 









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