अँधेरा


“मुझसे शादी करोगी?” यह प्रश्न उसके मन-मस्तिष्क में रह-रहकर गूँज रहा था। कदम घर की ओर तो जा रहे थे किन्तु न जाने क्यों आज हर पग लम्बा और भारी लग रहा था। ‘शादी करना चाहता है वह...पर यदि मेरे अतीत के बारे में उसे पता चला तो...’ उसके मन में रह-रहकर यह बात आ रही थी। वह चाहती थी कि उसे सबकुछ बता दे, पर बताने का भयानक परिणाम का अहसास उसके रोम-रोम में सिहरन पैदा कर जाता। ‘भला कैसे बताएगी वह उसे? सच जानने के बाद क्या वह उसे इतना प्यार कर पाएगा, उसे अपनाएगा या ताने देकर, गालियाँ देकर, उसे अछूत, नीच मानकर छोड़कर चला जाएगा और बदनामी नहीं करेगा इसकी भी क्या गारंटी है?’ उसका दिमाग मानों फटने को आ गया। तभी पीछे से आती कार के हार्न ने उसे चौंका दिया। उसने सिर उठाकर देखा, वह अपने घर के पास आ चुकी थी।


    घर का द्वार खुला था। माँ बैठी हुई चावल बीन रही थी, “आ गयी बेटा...बात हुई उससे? क्या कहा उसने?” माँ ने उससे पूछा लेकिन माँ की बात को अनसुना कर कंधे से अपना पर्स उतारकर मेज पर रखा और मुँह धोने लगी। माँ ने भी चावलों की थाली एक ओर रख दी और अपना प्रश्न दोहराया, “अरे क्या कहा उसने? कुछ बात हुई?”


    “अरे क्या है माँ? क्यों दिमाग खराब कर रही हो? तुम जाकर एक कप चाय बना दो प्लीज़”, उसने खीझते हुए कहा।


    माँ ने उसका माथा छूकर देखा, “क्या बात है? तबियत तो ठीक है? झगड़ा कर आई क्या? अच्छा चाय बनाती हूँ”।


    माँ चाय बनाने चली गयी और वह सोफे पर लेट गयी हाथ अपने माथे पर रख लिया। उसके कानों में अभी तक सुशील के शब्द गूँज रहे थे, “मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ सपना। मुझसे शादी करोगी?”

    सुशील और सपना एक ही कम्पनी में नौकरी करते थे। दोनों पिछले दो सालों से एक-दूसरे को जानते थे। सुशील ने पहली ही नज़र में सपना को पसन्द कर लिया था। धीरे-धीरे दोनों में घनिष्टता बढ़ती गयी और दोनों एक दूसरे को चाहने लगे। लेकिन अपने दिल की बात कहने में सुशील को दो साल लग गये। सपना भी बहुत कम बोलती थी और कई प्रश्नों के उत्तर में केवल मुस्कुरा देती थी। संभवतः इसीलिए अपने मन की बात उससे कहने में सुशील की हिम्मत नहीं हुई। 


    अक्सर वे दोनों ऑफिस से लौटते समय घंटे-आधे घंटे हुसैनगंज चौराहे पर स्थित दीदार कॉफी हाउस में बैठ जाते। बहुत हिम्मत जुटाकर आज कॉफी हाउस में सुशील ने सपना का हाथ अपने हाथ में लेकर अपने मन की बात कह डाली। एक पल को तो सपना को बहुत अच्छा लगा लेकिन अगले ही पल वह मानों घबरा उठी। वह बेचैन हो उठी। उसने सुशील के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। आधी प्याली कॉफी छोड़कर अपना पर्स उठाकर वहाँ से निकल आई। सुशील ने उसे बहुत रोकना चाहा, सॉरी भी बोला, पर वह न रुकी। कॉफी हाउस से निकलकर वह सीधे ऑटो में बैठी और घर की ओर चल दी। रास्ते भर सुशील का फोन आता रहा लेकिन हर बार वह फोन काटती रही। 


    उधर सुशील भी बहुत परेशान हो गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि शादी की बात पर वह इतना बेरुखा व्यवहार क्यों करने लगी? आखिर ऐसी भी कौन-सी गलत बात कह दी उसने? इतने फोन किए पर सपना ने कोई रिस्पांस नहीं दिया। सुशील भी विचलित मन से अपने घर चला गया। 

    “चाय पी ले” माँ ने चाय का प्याला मेज पर रख दिया, “क्या हो गया? कुछ बताएगी भी?” माँ ने पास बैठते हुए कहा। 


    वह उठ बैठी, “शादी करने को कह रहा है वह,” चाय का कप अपने हाथ में लेते हुए सपना ने कहा। 


    माँ ने प्रसन्न होते हुए कहा, “तो इसमें मुँह लटकाने की क्या बात है? यह तो खुशी की बात है। तूने क्या कहा?”


    “मैं क्या कहती? कुछ नहीं कहा मैंने, मैं चुपचाप चली आयी” उसने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।


    “ठीक किया...हर समय अपनी हेकड़ी दिखाती है। ‘हाँ’ क्यों नहीं कहा उसे? माँ ने कुछ चिढ़ते हुए कहा “मुझे तो तू बेवकूफ समझती है। अच्छा खासा लड़का है। सुन्दर है, सभ्य है, सबसे अच्छी बात कि उसका व्यवहार बहुत अच्छा है और वह किसी बुरी लत में भी नहीं है। वह तुझसे शादी करना चाहता है तो इसमें बुराई   क्या नज़र आयी जो इतना शोक मना रही है?”


    “बुराई उसमें नहीं, मुझमें है माँ...मैं अपनी ज़िन्दगी के अँधरे से किसी की ज़िन्दगी स्याह करना नहीं चाहती” वह धीरे से बुदबुदाई।


    “क्या...दिमाग तो खराब नहीं है तेरा?” माँ की भौंहे सिकुड़ गयीं और रुआंसी होकर कहने लगीं, “मुझसे पूछ तेरे ब्याह की आस लिए जी रही हूँ...तेरे पिताजी होते तो मैं निश्चिन्त रहती लेकिन उनके जाने के बाद...जो कुछ जोड़-बटोर के रख गए हैं तेरे लिए, उसी का सहारा है। अब बिन ब्याही जवान लड़की घर में हो तो कलेजे में चैन कहाँ? और एक तू है जो दिमाग दिखाती रहती है। अरे मुझे इसमें भी कोई गुरेज़ नहीं कि मेरे न सही अपने मन से लड़का पसन्द कर ले, पर तुझे तो पता नहीं, कौन-सा सात समन्दर पार का राजकुमार चाहिए। अगर मेरी आँख बन्द हो गयी तो न जाने क्या होगा?” कहती हुयी माँ चावल की थाली उठाकर रसोई में चली गयी। सपना भी चुपचाप अपने कमरे में चली गयी और माथे पर हाथ रखकर लेट गयी। 


    लेटे-लेटे वह सोचने लगी, ‘माँ ने कुछ भी तो गलत नहीं कहा। सचमुच सुशील बहुत अच्छा लड़का है। वह तो मेरी ज़िन्दगी के अँधेरे को दूर करने आया है। प्यार भी करता है मुझसे लेकिन जब उसे मेरी अँधेरी ज़िन्दगी की हक़ीकत पता चलेगी तब क्या होगा? वह कैसी प्रतिक्रिया देगा? लेकिन बिना सच्चाई बताए उससे शादी करना भी तो गलत है। यह तो उसके प्रति, उसके सच्चे प्यार और उसके भोले मन के प्रति अन्याय है। वैसे भी हमारे समाज में शादी कोई दो-चार साल का समझौता थोड़े ही है। वह तो जन्म-जन्मान्तर का बंधन है।  बंधन के भी बढ़कर एक दूसरे पर अगाध विश्वास ही पति-पत्नी के रिश्ते का आधार है। झूठ और छल-कपट  के धरातल पर वह आधार खड़ा करना न केवल समाज बल्कि खुद अपनी नज़र में भी अनुचित है। और यदि शादी के बाद उसे पता चला तो वह मुझे कभी माफ नहीं कर पाएगा। मैं उसे सब सच बता दूँ यही ठीक रहेगा’ सोचते-सोचते उसे वह अँधेरी काली रात याद आने लगी जिसका अँधेरा आज भी उसकी ज़िन्दगी में छाया हुआ है...


‘उसकी दसवीं की परीक्षाएँ चल ही रहीं थीं कि उसे पता चला कि अगले महीने कानपुर वाली बुआ की बड़ी बेटी की शादी है। परीक्षाओं के बाद शादी में जाना उसके लिए बहुत सुखद अनुभव था। रजनी दीदी की शादी की खूब तैयारी की थी उसने। भगवान् से मन्नत माँगी थी उसने कि शादी से पहले ही बोर्ड परीक्षाएँ समाप्त हो जाएँ जिससे वह शादी में खूब मस्ती कर सके। शादी से ठीक दो दिन पहले वह मम्मी-पापा के साथ कानपुर पहुँच गयी थी। दीदी तो उसे देखकर मानों खिल ही उठी। झट अपने गले लगा लिया था उन्होंने। परीक्षाएँ भी बहुत अच्छी गयीं थीं। पापा को तो उसके मेरिट में आने की उम्मीद थी। बुआ का पूरा बँगला दुल्हन की तरह सजा हुआ था। नये-नये बँगले में फूलों और बिजली की लड़ियों की सजावट। दीदी के साथ बँगला भी दुल्हन की तरह सजाया गया था। 


    बँगले की दूसरी मंजिल पर दीदी का कमरा था। उसी में सपना भी ठहरी थी। अपना सारा सामान लेकर दीदी ने उसे अपने कमरे में ही रुकने का आदेश जो दिया था। वह बहुत उत्साहित थी। रात में दीदी ने अनपे ज़ेवर, साड़ियाँ और गोद में आया हुआ सारा सामान सपना को दिखाया। उसके साथ ही गुदगुदाते और आँख मारते हुए दीदी ने कहा, “तेरे जीजा जी का छोटा भाई इंटर का एक्जाम दे रहा है। स्मार्ट है...अगर कहे तो उससे तेरी बात करवाऊँ।” वह बिल्कुल शरमा गयी थी। दीदी ने उसे बाहों में भर लिया। बातों-बातों में न जाने कब नींद आ गयी। 


    सुबह हल्दी की रस्म थी। दिनभर गीत-संगीत में कहाँ कट गया पता ही नहीं चला। सुबह से ही आईं दीदी की सहेलियों ने रात में दीदी और उसके हाथों में सुन्दर मेंहदी लगाई थी। तभी अचानक दीदी बोलीं, “अरे दोनों हाथों में मेंहदी लग गयी खाना कैसे खायेगी?” इतने में बुआ जी दो थालियों में पूड़ी और सब्जी ले आयीं और एक-एक कौर उसे खिलाने लगीं।


    खाना खाने के बाद बुआ जी दीदी से कुछ ज़रूरी बातें करने के लिए उन्हें अपने साथ ले गयीं। अकेले कमरे में वह बार-बार अपने गोरे हाथों में लगी मेंहदी को देखती और खुश होती थी। शुरू से ही उसे अपनी बुआ से बेहद लगाव था। उनका, फूफा जी का, दीदी का और भइया का व्यवहार उसे इतना अच्छा लगता था कि वह गर्मियों की छुट्टियों में अक्सर कानपुर आ जाया करती थी। रात के बारह बज चुके थे। मेंहदी लगाकर दीदी की सहेलियाँ जा चुकीं थीं। उसे भी नींद आ रही थी। वह वहीं दीदी के पलंग पर लेट गयी और सो गयी।
    आधी रात के समय उसे अपने शरीर पर कुछ हरकत पता चली। उसने झट आँख खोली पर कमरे में हर तरफ अँधेरा था। वह छटपटाई, पर उसे अपने शरीर  के ऊपर बहुत भार प्रतीत हुआ। वह हिल भी नहीं पा रही थी। एक बहुत तगड़ा हाथ उसके स्तनों को दबा रहा था। उसने चीखने की बहुत कोशिख की लेकिन उसके मुँह और होंठों को जैसे कोई चबा लेना चाहता था। वह असहाय सी पड़ी थी। न हिल पा रही थी और न ही चीख पा रही थी। उसके ऊपर वह भारी-भरकम शरीर अपनी मनमानी करता रहा। वह कठोर हाथ उसके शरीर के अंग-प्रत्यंगों को रबड़ की तरह मसलता-नोचता रहा और कमरे का अँधेरा उसकी ज़िन्दगी में भरता रहा था। पता नहीं कितनी देर तक वह इस अँधेरे से लड़ने की नाकाम कोशिश करती रही और अन्त में निढ़ाल होकर बेहोश हो गयी। 


    सुबह होने से पहले उसे होश आ गया। उसने देखा कमरे की बत्तियाँ जल रही थीं। लेकिन कमरे में कोई नहीं था। उसने चीखकर सबको बताना चाहा लेकिन न जाने क्यों एक अनजान भय ने उसकी आवाज़ को अन्दर ही रोक लिया। वह चुपचाप लड़खड़ाती हुई बाथरूम में चली गयी। शीशे में अपनी हालत देखकर बहुत देर तक रोती रही। फिर स्वयं को सँभालती हुई नहा-धोकर बाहर आयी और माँ को ढूँढ़ने लगी। माँ बुआ जी के पास बैठी कुछ बातें कर रही थी। वह भी वहीं बैठ गयी। कई बार उसने कोशिश की कि माँ को सबकुछ बता दे, पर माँ ने उसकी मनोदशा को समझा ही नहीं। वह तो बुआ जी के साथ शादी की बातचीत में खोई हुई थी। पिर उसने सोचा कि दिदी से कह दे, पर बताएगी क्या कि उसके साथ क्या हुआ है? किसने किया है? उसने तो उसका जानवर रूपी इंसान का चेहरा तक नहीं देखा तो फिर वह किसी को क्या बताएगी? सोच-सोच कर वह पागल हुए जा रही थी। कभी वह नीचे माँ के पास जाकर बैठती तो कभी इधर-उधर बदहवास-सी घूमती। तभी उसकी नज़र सामने पापा के पास बैठे फूफा जी पर पड़ी और उसका दिल धक् हो गया। उसने देखा कि फूफा जी के चेहरे पर नाखूनों के निशान थे। वह समझ गयी कि रात को वह बारी भरकम शरीर वाला और कोई नहीं बल्कि फूफा जी ही थे। उसका मन हुआ कि वह फूफा जी के वेश में बैठे राक्षस के शरीर में चाकू घोंप दे पर घायल मृगशावक की भाँति निरीह-सी वह केवल देख ही सकती थी। फूफा जी बहुत सहज रूप से बैठे हुए अपने चेहरे के निशानों पर क्रीम लगाते हुए कह रहे थे, “रात एक बिल्ली ऊपर कूद पड़ी, उसी के नाखून लग गये।” 


    सपना को सबकुछ लुटा हुआ सा ही लग रहा था। शादी में उसका मन नहीं लगा। लखनऊ लौटते ही उसने सारी घटना अपनी माँ को बताई। सुनते ही माँ ऐसी हो गयी कि काटो तो खून नहीं। वह अपना सिर पकड़कर धम्म से बैठ गयी। वह सोचने लगी कि ‘उसे इस बात पर तभी गौर करना चाहिए जब उनके स्वागत में खड़े फूफा जी ने सपने के सिर और पीठ पर हाथ फेरा था। लेकिन अब क्या हो सकता था? सबकुछ तो लुट चुका था।’ माँ ने सपना से सबकुछ भूलने के कहा तथा इस घटना का ज़िक्र किसी से भी न करने को कहा। 
    समय के साथ-साथ माँ ने तो अपना जी कड़ा कर लिया लेकिन उस घटना के बाद सपना की ज़िन्दगी में ऐसा अँधेरा छाया कि उसे अँधेरे से डर लगने लगा। इस वजह से वह रात में सोते समय एक बल्ब अपने कमरे में ज़रूर जलाए रखती थी। 

    मोबाइल की रिंगटोन ने सपना के मस्तिष्क में चल रही इस घटना की फिल्म को जैसे बीच में ही रोक दिया। उसने फोन की ओर देखा, सुशील का फोन था। इस बार उसने फोन अपने कान पर लगा लिया। फोन कान पर लगाते ही उधर से आवाज़ आई, ‘अरे यार आई एम सॉरी...पर तुम्हें क्या हुआ? तुम मुझसे साफ मना कर देतीं...इस तरह उठकर चली आईं...आर यू ओ के...?’


    “मुझे तुमसे कुछ बात करनी है” सुशील की बात का जवाब न देते हुए उसने कहा।
    “अभी आ जाऊँ घर...या...” सुशील ने तुरन्त पूछा।


    “नहीं...कल ज़ू में मिलना...सुबह सात बजे,” कहकर सपना ने फोन काट दिया। 
अगले दिन सुबह सवा सात बजे सपना ज़ू में पहुँची। अन्दर बनी बारहदरी में सुशील उसका इंतज़ार कर रहा था। उसे देखते ही उठकर उसकी ओर आया और मुस्कुराते हुए बोला, “गुड मार्निंग...क्या हुआ?” 


“तुम्हारे कल वाले प्रश्न का उत्तर देने आयी हूँ, लेकिन उससे पहले तुमसे कुछ कहना है,” वह गंभीरता से बोली।
दोनों बारहदरी में बैठ गये। 
“पर ऐसी कौन सी बात है जो तुम उतना टेन्स हो?” सुशील के चेहरे पर आश्चर्य के भाव थे।


सपना पूरी तैयारी से मन कड़ा करके आयी थी। उसने सुशील से अपनी आँखें मिलाये बिना ही सारी घटना कह सुनायी। सुशील उसकी बात सुनकर अपना सिर अपने दोनों हाथों में पकड़कर चुपचाप बैठ गया। कुछ पल के लिए मानों वह जड़ हो गया।  
आँखों में आँसू भरे हुए सपना ने पूछा, “क्या अब भी तुम मुझसे शादी करोगे? क्या मैं तुम्हारे लायक हूँ?”


सुशील ऐसे खड़ा हुआ कि अब एक पल भी यहाँ नहीं रुकेगा। सपना भी खड़ी हो गयी। उसे विश्वास हो चला था कि आज सुशील से सारा रिश्ता खत्म हो जाएगा और वह इस परिणाम के लिए खुद को तैयार करके आई थी। अचानक सुशील सपना के पास आकर अपने घुटनों पर बैठ गया और सपना का हाथ अपने हाथ में लेकर उसकी ओर देखते हुए बोला, “आई लव यू...विल यू मैरी मी?” 


सपना को लगा कि वह सपना देख रही है। उसे अपनी आँखों और कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उसकी आँखों में आँसुओं की ऐसी झड़ी लगी कि सुशील को अपने रुमाल से उसकी आँखें पोंछनी पड़ीं। सपना आँखें नहीं खोल पा रही थी। आखिर उसके जीवन का अँधेरा जो मिट गया था। 

 


तारीख: 03.11.2017                                    डॉ. लवलेश दत्त









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