अतिथि देवो भव:

सर्दियों के दिन थे। आज रविवार होने की वजह से मुझे ज़यादा काम नहीं था। मम्मी सुबह-सुबह मंदिर गई थीं। टीवी के सामने बैठना और दुखी होने के लिए कोई भी एक मुद्दा ढूंढ़ लेना हम भारतीयों की पुरानी आदत है। आज मैं भी उसी परंपरा का निर्वाह कर रहा था। टीवी में भी आज कुछ अच्छा नहीं आ रहा था, मन उचट सा जाने पर सोचा कि बंद कर दूँ तभी घर की घंटी बजी। मैंने सोचा कि मम्मी होगी। दरवाज़ा खोल कर देखा तो एक बूढ़ा आदमी सामने खड़ा था। 


“जी?” मैंने हैरानी से उसकी तरफ देखते हुए पूछा।


उसने कोई जवाब नहीं दिया। मेरी समझ में नहीं आया। क्या मैंने अपना सवाल ठीक से नहीं पूछा या फिर ये इंसान बहरा है? मैंने तो ठीक से और सपष्ट ही पूछा था, फिर भी वो मेरे सामने चुपचाप खड़ा रहा। पुरे आधे मिनट तक हम दोनों में कोई बातचीत नहीं हुई। मन में शंका भी हुई “क्या ये आदमी अनपढ़ है? क्या इतना अनपढ़ है कि हिंदी भी नहीं समझता? हो सकता है इसे हिंदी आती ही नहीं।”


“क्या मैं अन्दर आ सकता हुं?” उसने बड़ी शालीनता से पूछा। मैं हैरान हो गया। हैरान इसलिए नहीं क्योंकि उसे हिंदी आती थी बल्कि इसलिए क्योंकि उसके बोलने के तरीके से एक अलग शिष्टाचार की समझ मिलती थी। वो गरीब हो सकता था पर अल्ल्हड़ नहीं था। उसने बड़े ही बेबाक तरीके से ये सवाल पूछा था ये जानते हुए भी कि वो एक अनजान है। वरना आजकल फ्लैट्स में लोग जान-पहचान वालों के घर जाने से पहले भी फ़ोन कर अनुमति लेते हैं। उसे यकीन था कि मैं उसे ना नहीं कहूँगा। पर मम्मी-पापा की सिखाई हुई एक बात याद आई “किसी अनजान आदमी को घर में मत घुसने देना।”


मैंने थोड़ा संभलते हुए पूछा, “आप कौन हैं और आपको किससे मिलना है?” फिर भी उसने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने एक बार उसकी तरफ सर से पाँव तक देखा। वो कुछ 65-70 साल का बूढ़ा मनुष्य होगा, थोड़ा कमज़ोर था और सादे कपड़ों में मेरे सामने खड़ा था। ऐसा लग रहा था मानो हमारी सारी बूढ़ी पीढ़ी की अकेले अगुवाई कर रहा हो। मुझे समझ में आया कि इन्हें शायद भूलने की बिमारी है जो वृधावस्था में काफी मामूली बात है। शायद ये कहीं और जाना चाहते थे और गलती से मेरे घर पहुँच गए हैं।


मैं पुणे की एक हाउसिंग सोसाइटी में रहता हुं। सिक्यूरिटी गार्ड्स हर समय बिल्डिंग की पहरेदारी में लगे रहते हैं। इस तरह किसी अनजान आदमी का दरवाज़ा खटखटाना और अंदर आने को पूछना थोड़ा अजीब तो था। पर ये एक बूढ़ा आदमी था और मैं 21 साल का लड़का आखिर क्या बुरा हो सकता था?


मैं दरवाज़े से हठ गया और मेरे मेहमान को अन्दर आने दिया। दरवाज़ा बंद करने के बाद मैंने उन्हें बैठने को कहा। पर मेरे कहने से पहले ही उन्होंने अपनी सही जगह ढूंढ़ ली थी। मैं जा के सामने सोफे पे बैठ गया। ध्यान से देखने पर पता चला कि उसका रंग सांवला था पर चेहरे पर ढेर सारे दाने थे। जितना वो बूढ़ा दिख रहा था, वो उससे भी बूढ़ा था। कद का अच्छा खासा 6 फुट का मनुष्य था। पर कंधे झुके हुए थे इसलिए लम्बाई पता नहीं चलती थी। वेशभूषा साधारण सी ही थी और साथ में कंधे पर एक झोला था।


मुझे दो बातों का यकीन हो गया, एक “वो मध्यम वर्गीय परिवार का एक साधारण आदमी है” और दूसरा कि “वो हमारी सोसाइटी का नहीं है क्योकि मैंने उसे पहले कभी नहीं देखा था।”


“क्या आप भटक गए हैं? किसी को जानते हैं यहाँ, कोई नाम, पता, फ़ोन नंबर अगर बताएँगे तो मैं आपको पहुंचा सकता हुं।”
मैंने जल्द ही किसी निर्णय पर पहुँचने के लिहाज़ से पूछा। वो मेरी ओर उसी गंभीरता से देखता रहा फिर धीरे से कहा, “नहीं।” 
“तो यहाँ पे क्यों आये हैं?” मैं अब थोड़ा अधीर हो रहा था। इसलिए अनजाने में ही मेरी आवाज़ थोड़ी ऊँची हो गई। 
“मुझे नहीं पता” उसने फिर एक भटका सा जवाब दिया।


मैं हैरान था कि सिक्यूरिटी गार्ड ने इसे अन्दर भी कैसे आने दिया। वो फिर थोड़ी देर तक मुझे घूरते रहे। फिल्म “ब्लैक” में अभिनेता अमिताभ बच्चन ‘अलजाइमर’ नामक बिमारी के शिकार थे। मुझे लगा कहीं ये महाशय भी तो नहीं।
जब मैं मन ही में अपने सवालों के जवाब ढूंढ़ रहा था, तभी उन्होंने मुझसे कहा, "क्या मुझे कुछ खाने को मिलेगा?" 


अब घूरने की बारी मेरी थी। मतलब मेरे मेहमान न सिर्फ भूले भटके थे बल्कि भूखे भी थे। बड़े बुजुर्गों के प्रति जो सम्मान मुझे था उस वजह से मैं उठा और किचन में जाकर कुछ खाने को ढूंढने लगा, वरना आजकल शहरों में आप ऐसे लोगों पे भरोसा नहीं कर सकते।
मम्मी ने सुबह खाने को कुछ बनाया नहीं था इसलिए मैंने कुछ बिस्कुट एक प्लेट पर निकाल कर उसके सामने रख दिए। मैं अपेक्षा कर रहा था की वो भूखा है तो बिस्कुट की तरफ टूट पड़ेगा पर बजाय उसके उसने बस बिस्कुट की तरफ सिर्फ देखा। वो प्लेट को चुपचाप आधे मिनट तक देखता रहा। फिर अजीब सा चेहरा बनाकर मुझसे कहा, “क्या चावल मिलेगा, मुझे ये खाने की आदत नहीं है।”
अब मेरे सब्र का बांध टूट रहा था। मैंने थोड़ी ऊँची आवाज़ में कहा, “नहीं घर में और कुछ नही है खाने के लिए।” उसने मुझे ऐसे देखा जैसे सुना ही न हो। वो बस फिर से चुपचाप मुझे घूरने लगा।


“क्या आप मेरे मम्मी–पापा को जानते हैं आप उनसे ही मिलने यहाँ आएं हैं?” मैंने पूछा। मैंने सोच लिया था कि कम से कम अब इसके साथ किसी तरह के निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए, चाहे उसके लिए थोड़ा सख्त ही क्यों न होना पड़े। पर फिर से मुझे कोई जवाब नहीं मिला।


“क्या आप बहरे हैं?” मेरा गुस्सा बढ़ते ही जा रहा था। उन्होंने मेरे इस सवाल का ज़वाब तो दिया पर सिर्फ ना में सर हिल कर।
“तो फिर आप यहाँ क्यों आएं हैं? क्या चाहिए आपको? जल्दी बताओ वरना मैं सिक्यूरिटी को बुलाऊंगा।” मैंने उसे थोड़ा धमकाते हुए कहा।


“क्या तुम किचन में दोबारा देख सकते हो शायद कोई चावल बचा हो? अगर है तो मुझे दोगे बहुत भूख लगी है।” उसने मेरी धमकी को पूरी तरह नज़रंदाज़ करते हुए कहा।


मैं उस आदमी से दो वजहों से बहुत नाराज़ हो चूका था पहला उसने मेरे दिए हुए बिस्कुट को ठुकरा दिया था और दूसरा अब मुझे उसके इरादों पे शक होने लगा था। मुझे अब वो पहले जैसा मासूम और भटका हुआ वृद्ध नहीं लग रहा था। मैंने सोच लिया था कि मैं उसे साफ़-साफ़ कह दूंगा कि उसे कुछ नहीं मिलेगा अगर मेरे पास हुआ भी तो। लेकिन कुछ तो था जो मैं समझा नहीं जिसकी वजह से मैं दुबारा किचन में गया। अब धीरे-धीरे लगने लगा मानो उसने मुझे सम्मोहित कर लिया है।


मुझे जल्द से जल्द इस बला से छुटकारा पाना चाहिए। यही सोचकर मैं किचन में पहुंचा तो देखा रसोई के कोने में एक पतीला रखा हुआ था। मुझे पूरा यकीन था जब मैं पहली बार किचन में आया तो मैंने उस पतीले को वहां नहीं देखा था या वो वहां था ही नहीं। मैंने पतीले का ढक्कन हटाया तो उसमे भात था। मुझे लगा हमारे मेहमान तो नसीब के पक्के हैं जो सोचा वो मिल गया। रात का भात शायद बच गया हो और मम्मी ने उसे यहाँ रख दिया हो। सूखे भात देना मुझे  अच्छा नहीं लगा तो मैंने फ्रिज में से थोड़ा दही और साग की सब्जी निकाल कर दे दिया। मैं हैरान था कि एक पल पहले मुझे इस इंसान पे इतना गुस्सा आ रहा था और अब मैं इसकी खातिरदारी क्यों कर रहा हुं? पर फिर भी मैंने सोचा जितनी जल्दी हो इससे निपट लूँ तो अच्छा है।


उसके बाद मैंने लिविंग रूम में पहुँच कर प्लेट उसके सामने रख दिया तो वो किसी भूखे की तरह खाने लगे। अब जाके ये स्पष्ट हुआ कि ये वाकई कोई भूखा इंसान है। मैं उसे थोड़े समय के लिए खाते देखता रहा। उसने चौथा कौर मुँह में डाला ही होगा की उसे खांसी आ गयी। मैं किचन में पानी लेने दौड़ा। एक गिलास में पानी लेके पहुंचा तो देखा बूढ़ा आदमी वहां नहीं है। मानो जैसे गायब। बस थोड़ी देर पहले तो वो यहीं था। मैंने देखा दरवाज़ा हल्का-सा खुला हुआ था। मुझे याद था कि अन्दर आते वक़्त मैंने दरवाज़ा बंद किया था। कॉफ़ी टेबल पर उसका आधा खाया हुआ प्लेट रखा था। क्या वो उस वक़्त चला गया जब मैं किचन में था? पर मैं सिर्फ एक मिनट ही वहां से हटा होऊंगा इतनी देर में वो कहाँ जा सकता है। और वो भी वो इतना बूढ़ा आदमी? उसका इतनी जल्दी उठ कर दरवाज़ा खोलकर, बिना कोई आवाज़ किए चले जाना थोड़ी संभावाना से परे था। मैंने सोचा वो ज्यादा दूर नहीं गया होगा इसलिए मैंने जाके दरवाज़े के बाहर देखा। वहां भी कोई नहीं था।


मैं निराश भाव से अन्दर आया तो उसके झोले पर मेरी नज़र पड़ी। वो एक सादा सा झोला था जिसे वो अपने साथ लाया था और वो वहीँ पड़ा हुआ था जहाँ उसने घर में बैठने के बाद रखा। क्या वो इसे भूल गया था या जानबूझकर छोड़ गया?  उसे खोलकर देखा तो एक कृष्ण भगवान् की मूर्ति निकली। उसी मुद्रा में जिसमे वो अपनी दोनों टांगे मोड़कर किसी पेड़ के निचे बंसी बजाते हैं। मेरी आज तक समझ में नहीं आया मुर्तिया हमेशा इतना मुस्कुराती क्यों हैं? वो मूर्ति भी मुस्कुरा रही थी। 


मैंने उस मूर्ति को दुबारा झोले में रखा और झोला लेकर कमरे के बाहर चला गया उस बूढ़े आदमी को ढूंढने। घर को ताला लगा कर मैं सीधे सिक्यूरिटी के केबिन पर पहुंचा।


“क्या इस बैग को लेकर किसी बूढ़े आदमी को अन्दर आते देखा है?” मैंने पूछा। 


“नहीं साहब। क्यों?” सिक्यूरिटी गार्ड ने जवाब दिया।


“नहीं कुछ नहीं। पक्का तुमने किसी को नहीं देखा?” मैंने फिर पूछा।


“नहीं साहब मैं तो पुरे वक़्त यहीं था और मैंने किसी को भी आते जाते नहीं देखा।” 


मैंने उस बूढ़े मनुष्य की वेशभूषा बता कर उसका वर्णन भी किया। पर सिक्यूरिटी गार्ड ने साफ़-साफ़ बताया कि न ऐसा कोई आदमी सोसाइटी में आया है और ना ही यहाँ कोई रहता भी है। मैंने अपनी बिल्डिंग के आसपास देखना शुरू किया और थोड़ी देर वहां भी ढूंढा ये आशा करते हुए कि वो शायद यहीं-कहीं हो। पर वो नहीं था।


फिर 15 मिनट बाद मैं विफल हो कर घर लौटा। जब मैंने दरवाज़ा खोला तो आशा कर रहा था कि शायद वो बूढ़ा आदमी दोबारा वहीँ मिले, अपने साग-भात पर, उसी आतुरता के साथ खाता हुआ। पर ऐसा हुआ नहीं। मैंने बैग को वहीँ रख दिया जहाँ से उठाया था और घर में एक बार फिर नज़र दौड़ाई ये सोच कर कि शायद वो यहीं-कहीं हो, पर मुझे कुछ हाथ नहीं लगा। मैं इतना सिर्फ इसलिए उत्तेजित था क्योकि मैं स्थिति को समझ नहीं पा रहा था।


कुछ देर तक बैठा और समझने की कोशिश करने लगा कि आखिर हुआ क्या? थोड़ी देर के लिए घर में पूरी शांति थी सिवाए एक टीवी के। मुझे उसकी आवाज़ शोर लग रही थी थोड़ी शांति चाहता था इस वक़्त। 


मैं उठा और रिमोट उठा कर टीवी बंद करने चला ही था कि फिर से दरवाज़े की घंटी बजी। जब किसी को महसूस होता है कि वो ऐसी ही किसी सिथ्ती से पहले भी गुज़र चूका है तो पश्चिम में लोग उसे "डेजा वू" के नाम से बुलाते हैं। इस बार जैसे ही घर की घंटी बजी मुझे लगा मुझे भी “डेजा वू” हुआ है। दौड़ के दरवाज़े की तरफ कूदा मानो मुझे यकीन था कि इस बार वही बूढ़ा मनुष्य है जो पहले आया था।


पर दरवाज़े पर मम्मी थी मैं शायाद इतना उत्सुक था उसे देखने को की दरवाज़े पे थोड़ी देर तक खड़ा होकर निहारते रहा। इधर उधर देखने लगा। पर मैं भूल गया कि मैं मम्मी का रास्ता रोके हुए खड़ा था।


"तुम्हे क्या हुआ? हटो सामने से" कहते हुए मम्मी आगे बढ़ी। मैंने कोई जवाब नहीं दिया। मम्मी आगे बढ़ी तो उन्होंने प्लेट में रखा साग-भात देखा और पूछा “ये क्या हैं?” बिना सोचे मैंने जवाब दिया “साग-भात।” “वो मैं भी देख सकती हूँ पर ये आया कहाँ से?” “भात किचन में पतीले में रखा था और साग की सब्जी फ्रिज में रखी थी।”


“भात कहाँ, मैंने कोई भात नहीं बनाया। किचन में कोई चावल नहीं है।” 


“है, मैं दिखाता हुं। आप चलिए मेरे साथ” कहते हुए मैं मम्मी को किचन में ले गया और वो चावल से भरा पतीला दिखाया।
मम्मी ने हैरानी से देखा और कहा कि ऐसा हो ही नहीं सकता और उन्होंने कोई भात नहीं बनाया। “हो सकता है आप बना कर भूल गयी हो।” मैंने समझदार बनते हुए कहा। “क्या मुझे ही याद नहीं रहेगा मैंने क्या बनाया और क्या नहीं।” मम्मी ने थोड़ा गुस्सा होते हुए कहा। मैं और मम्मी लिविंग रूम की तरफ बढ़े। मम्मी ने इस बार उस बूढ़े इंसान का झोला देखा और पूछा “ये क्या है?”


उन्हें मेरे चेहरे की परेशानी पढ़ने में ज्यादा समय नहीं लगा। थोड़े गंभीर भाव से उन्होंने पूछा "क्या हुआ था?" मैंने उन्हें सारा किस्सा कह सुनाया।


सुनने के बाद उन्होंने कहा, "ओह! तो इसलिए तुम मुझे दरवाज़े पे देख के हैरान हो गए थे।” 


“हाँ”


“पर था कौन ये बूढ़ा आदमी।” 


“जैसा की मैंने पहले ही कहा मुझे नहीं मालूम। कुछ मेरी भी समझ में तो नहीं आ रहा।”


अगले दो मिनट हम दोनों चुपचाप बैठे हुए सोच रहे थे। मुझे समझ में आ गया था कि अगर सोचने बैठेंगे तो दो मिनट से बहुत ज्यादा समय लगेगा। एक बार फिर घर में पूरी शांति थी, सिवाए उस टीवी के जिसे मैं पहले भी दो बार बंद करना भूल चुका था।
टीवी पे रविवार सुबह के कार्यक्रम में से एक महाभारत था, वो इस वक़्त चल रहा रहा था। जिसमें वो द्रिश्य चल रहा था जब भगवान् श्री कृष्ण विधुर के घर पर साग-भात खाते हैं।

 

मैंने मम्मी को देखा और मम्मी ने मुझे। हम दोनों एक ही बात सोच रहे थे। मेरी आँखों की पुतलियाँ चौड़ी हो रहीं थी। ह्रदय मेरी छाती के दरवाज़े पर जोर जोर दस्तक मार रहा था मानों मुँह के तले बाहर आ जाएगा। जब इंसान अचम्भे में हो तो शरीर में ऐसे लक्षण सामान्य हैं। मैंने एक कदम आगे बढ़कर पूछा, “अगर लोगों को बताएँगे तो कोई विश्वाश करेगा क्या?”


मम्मी ने कोई जवाब नहीं दिया सीधे-सीधे कहा, “चैनल बदल दो।” मैंने चैनल बदल दिया। अगला चैनल था नेशनल जियोग्राफिक चैनल। उस पे कुछ भारतीय जीवन यापन के बारे में बताया जा रहा था। वर्णनकर्ता अपनी पुख्ता आवाज़ में कह रहा था, “भारत में लोग अपने मेहमान को इतना मान देते हैं कि खुद उन्हें देवताओं का रूप मानते हैं।


वहां एक प्रचलित कथन है ‘अतिथि देवो भव:’ मतलब मेहमान भगवान् के समान होता है। आज भी घर आये मेहमान को यहाँ बिना कुछ खिलाए नहीं जाने दिया जाता। कैसे उन्नत और महान विचार हैं इस देश के। ऐसी संस्कृति और कहीं नहीं है दुनिया भर में। सच में यहाँ के लोग आर्यन  शब्द का एक जीवंत उदहारण हैं। आर्यन  का अर्थ होता है महान और उदार, भारत को कभी-कभी आर्याव्रत यानि आर्यो की धरती भी कहा जाता है। भारत में और भी अन्य……


मैंने टीवी बंद कर देना ही उचित समझा। मम्मी और मैं एक दुसरे को देख रहे थे। कुछ समझ में नहीं आ रहा था पर हमने इसके बारे मे कभी बात नहीं करना ही बेहतर समझा। पता नहीं कोई यकीन करे न करे।


-प्रिंस तिवारी / संकेत पाटिल
 


तारीख: 25.06.2017                                    प्रिंस तिवारी









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