श्यामा

भादों की अष्टमी थी और उस दिन शायद रोहिणी नक्षत्र भी था। भयंकर काली घटाएँ आसमान में छायी थीं जो गरज-गरज कर उसे जन्मदिन की बधाई दे रही थीं। आखिर आज ही के दिन तो श्यामा इस धरती पर आयी थी। वह जानती थी कि आज उसे पर्याप्त मिठाई, कचौड़ी, खीर आदि मिलेगी। 

कृष्णादास और उसकी पत्नी को श्यामा और उसकी माँ नंदिनी से बहुत प्रेम था। क्यों न होता आखिर श्यामा की माँ नंदिनी को कृष्णादास के पिता ने उसे उपहार में लाकर दिया था और अब तो नंदिनी सुन्दर-सी बछिया श्यामा को जन्म दे चुकी थी। श्यामा के जन्मदिन पर प्रत्येक वर्ष कृष्णादास और उसकी पत्नी उसके लिए अच्छे-अच्छे पकवान बनाकर लाते थे। उसका पूजन करते और प्यार से माथा चूमते। इसका एक कारण यह भी था कि जिस दिन से श्यामा ने जन्म दिया था उसी दिन से कृष्णादास के घर में तरक्की होनी शुरू हो गयी थी। सचमुच अपने मालिक कृष्णादास के घर श्यामा बहुत सुखी थी। कृष्णादास भी अक्सर श्यामा को थपथपाता और कहता, “तू तो बड़भागिनी है। तेरे पैरों में तो लक्ष्मी बँधी है....तुझे अपने घर से कभी नहीं जाने दूँगा” और यह कहते हुए वह श्यामा का माथा चूम लेता।

लेकिन समय सदैव एक-सा नहीं रहता। एक दिन श्यामा को पता चला कि दुःख क्या होता है? रात का समय था, श्यामा को उसके बाड़े में बाँध दिया गया था। हालाँकि चाँदनी रात थी लेकिन आकाश में बादलों की आँख-मिचौनी के कारण एकदम स्पष्ट देख पाना संभव नहीं था। श्यामा ने गौर से देखा कि उसकी माँ नंदिनी उसे टकटकी लगाए देख रही है और उसकी आँखों से आँसू बह रहे हैं।

“क्यों रो रही हो माँ?” श्यामा ने पूछा। पर, माँ ने उत्तर नहीं दिया बल्कि वह विह्वल हो उठी, और फूट-फूटकर रोने लगी। माँ को रोता देख किसे पीड़ा नहीं होती? श्यामा का मन भी विचलित हो उठा। 

लेकिन उसने माँ से कुछ नहीं कहा। उसे लगा कि हो सकता है कि माँ से अधिक पूछताछ करने से माँ का दुःख बढ़ जाए। संभवतः वह अपना दुःख रोकर बहा देना चाहती है। श्यामा चुप रही और न जाने कब उसकी आँख लग गयी। सबेरे श्यामा को जागने में देर हो गई लेकिन जब उसकी आँख खुली और सामने चरनी पर देखा तो खूँटा खाली पड़ा था। ‘माँ कहाँ है?’ उसके मन में प्रश्न उठा। उसने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई परन्तु माँ का कहीं अता-पता न था। ‘शायद खेत पर गई होगी’, ऐसा विचार कर उसने स्वयं को समझाया लेकिन न जाने क्यों एक अनजान-सी बेचैनी उसके मन में घर कर गई थी। सूरज सिर चढ़ आया, पर माँ नहीं आयी। शाम हो गयी, रात हो गई, पर माँ नहीं आयी। एक-एक करके कई दिन बीत गये पर माँ अभी तक नहीं लौटी। ‘माँ कहाँ चली गयी’, श्यामा मन-ही-मन सोचती, ‘क्या अब माँ कभी नहीं आएगी?’ दिन बीतने लगे। धीरे-धीरे श्यामा ने भी धैर्य धारण कर लिया लेकिन फिर भी कभी-कभी घुँघरू की या खुरों की आवाज़ आती तो उसकी दृष्टि झट से दरवाज़े पर टिक जाती ‘कहीं माँ तो नहीं आ गयी?’

कृष्णादास और उसके परिवार ने श्यामा का पालन-पोषण बहुत अच्छी तरह किया। उसे काफी खिलाया-पिलाया जाता। उसका खूब ध्यान रखा जाता। वह खूब खाती और खूब सोती। कृष्णादास के बच्चों के साथ खूब उछलती-कूदती और खेलती, लेकिन जब-जब उसे अपनी माँ की याद आती वह उदास हो जाती और कभी दरवाज़े की ओर तो कभी उसी खूँटे की ओर देखती जिसपर उसकी माँ बँधी-बँधी उसकी ओर ममतामयी दृष्टि से देखती रहती थी। 

अब श्यामा जवान हो चली थी। सुन्दरता उसके शरीर से फूट रही थी। एक दिन श्याम नामक एक हृष्ट-पुष्ट बछड़े से उसका विवाह हो गया। अब श्यामा और श्याम एक ही बाड़े में रहने लगे। श्याम बहुत कम बोलता था लेकिन वह बहुत परिश्रमी और समझदार था। दिनभर वह कृष्णादास के साथ खेतों पर काम कराता और फिर शाम को आकर चुपचाप खा-पीकर सो जाता। श्यामा उससे बातें करना चाहती तो मैं थक गया हूँ कहकर आँखें मूँद लेता। श्यामा को उसकी यह आदत बहुत खलती थी। वह उससे अपने मन की बातें करना चाहती, प्यार की बातें करना चाहती लेकिन श्याम तो जैसे उसकी उपेक्षा ही करता रहता। कई बार श्यामा ने उससे अपने मन की बात कहने की कोशिश की लेकिन वह उल्टा उसे ही उपदेश देने लगता और कभी भी उसकी बात को गंभीरता से नहीं लेता। उसके मुख पर स्वयं ही गंभीरता दिखाई देती। 

एक दिन श्यामा ने उससे नाराज होते हुए कहा, “हमेशा क्यों मुँह लटकाए रहते हो आखिर किस बात का दुःख है तुम्हें यहाँ सबकुछ कितना अच्छा है, मालिक भी हमें बहुत प्यार करता है। किसी भी चीज़ की कमी नहीं होने देता। कितना सुख है यहाँ?”

श्याम ने गंभीरता से उत्तर दिया, “कृष्णादास और उसके परिवार को हमसे कितना प्रेम है यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ। वे मनुष्य हैं, हम उनकी आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। जिस दिन भी उनकी आवश्यकतापूर्ति में बाधा आई उसी दिन.....।” श्याम कहते-कहते रुक गया। श्यामा को यह बात अच्छी नहीं लगी। उसने तो जन्म से देखा है कि कृष्णादास और उसके परिवार का हर एक प्राणी उसे कितना प्यार करता है। क्या श्याम को यह दिखाई नहीं देता? उसने श्याम से कहा, “यह केवल आपका भ्रम है। ये लोग इतने स्वार्थी नहीं हैं”, कहकर उसने श्याम की तरफ से मुँह मोड़ लिया।

श्याम ने कहा, “श्यामा! मैंने दुनिया देखी है और तुमने इस बाड़े को ही देखा है। तुमको और कुछ नहीं मालूम। मालूम है तो बताओ तुम्हारी माँ भी यहीं पली थी, अब वह कहाँ है?” श्यामा को जैसे तेज झटका लगा, “कहाँ है माँ?” उसने तुरन्त श्याम से पूछा। मुझे मालूम है कि तुम्हारी माँ कहाँ गयी पर तुम्हें इस हालत में यह जानकर दुःख देना नहीं चाहता। और श्याम ने उसकी तरफ से मुँह मोड़ लिया। श्यामा उसके हाव-भाव देखकर भाँप चुकी थी कि अब वह कुछ नहीं बोलेगा। वह भी चुपचाप लेट गयी और माँ के बारे में सोचने लगी क्योंकि वह भी अब माँ बनने वाली थी। 

कुछ समय बाद श्यामा ने सुन्दर बछड़े को जन्म दिया। श्यामा को तो मानों स्वर्ग मिल गया। नन्हा-सा बच्चा दूध पिएगा, माँ के साथ सोएगा, वह उसे अपनी जीभ से चाटकर प्यार करेगी, उस समय उसे कितना आनन्द प्राप्त होगा।

किन्तु आठवें दिन वहाँ का पूरा दृश्य ही बदल गया। कृष्णादास बाड़े में आया, उसके सुन्दर और कोमल बछड़े की गर्दन में मोटी रस्सी बाँधी और उसे खींचकर बाड़े से बाहर बाँध आया। फिर श्यामा के दूध दुहने लगा। दूध और झाग से बर्तन भरने लगा और उधर भूखा प्यासा बछड़ा दूध को तरसती हुई निगाहों से देखता रहा। कृष्णादास उसे लेकर चला गया और जाने से पहले बछड़े को रस्सी से खोल गया। नन्हा बछड़ा माँ की ओर लपका और उसके रीते थनों को चिचोड़ने लगा। पर, दूध कहाँ? बेचारे बछड़े को दूध नहीं मिला, वह भूखा ही रह गया। दूध न मिलने के कारण भूखा बछड़ा श्यामा के थनों में सिर मारने लगा। बछड़े की यह हालत देख श्यामा का मन आहत हो उठा। वह उसे समझाने लगी, कुछ देर रुको बेटा। फिर दूध आयेगा। थोड़ी देर बाद बछड़े ने थन में मुँह लगाया ही था कि कृष्णादास फिर आ गया और बछड़े को फिर खींचकर श्यामा से अलग बाँध दिया और श्यामा का दूध दुहने लगा। भूख से व्याकुल बछड़ा माँ-माँ करता रहा। असहाय श्यामा बछड़े की स्थिति पर असीम वेदना से कराह उठी। 

अब तो प्रतिदिन यही क्रम चलने लगा। श्यामा के थनों में अपने प्रिय बछड़े को देखकर दूध उमड़ता लेकिन कृष्णादास उसका सारा दूध निचोड़ लेता। बेचारा बछड़ा भूखा रह जाता या उसे कुछ ही बूँदें अपनी क्षुधातृप्ति के लिए मिल पातीं। 

एक दिन गोविन्द नाम का एक दलाल कृष्णादास के साथ बाड़े में आया। दोनों में कुछ बातें हुईँ और गोविन्द बछड़े को ले जाने लगा। बछड़ा ‘माँ-माँ’ पुकारने लगा और गोविन्द के साथ जाने से इंकार करना चाहता था लेकिन गोविन्द लगातार उसकी रस्सी खींचता रहा और दोनों टाँगों पर पतली डंडी मारता रहा। श्यामा भी अपने पुत्र को बिछड़ते देख चीत्कार करने लगी लेकिन मनुष्यों ने उनकी चीत्कार को अनसुना कर दिया और बछड़े को अपने साथ ले गये। 

शाम को जब श्याम बाड़े में लौटा तो श्यामा ने सारा हाल रो-रोकर उसे कह सुनाया। ”मुझे मालूम था ऐसा ही होगा”, श्याम ने गंभीरता से कहा, “कृष्णादास क्या सोचता है जानती हो?” उसने आगे कहा, “बछिया हो तो पाले, दूध तो मिलेगा। यह तो बछड़ा है। काम करने के लिए एक ही बैल काफी है, दूसरे का क्या करना? यही है आदमी का प्रेम”, कहकर श्याम फिर गंभीर हो उठा। श्यामा देर तक आँसू बहाती रही। आज उसे अपनी माँ बहुत याद आ रही थी, ‘न जाने कहाँ चली गयी या फिर उसे भी कृष्णादास ने...’

समय बीतता गया। श्यामा फिर गर्भवती हुई, इस बार उसने सुन्दर बछिया को जन्म दिया। ‘यदि बछड़ा होता तो कृष्णादास उसे बेच देता लेकिन यह तो बछिया है, यह हमेशा मेरे साथ रहेगी।‘ ऐसा विचारकर श्यामा को कुछ शान्ति मिली। 

परन्तु दुर्भाग्य तो जैसे श्यामा के पीछे हाथ धोकर पड़ गया था। बछिया बीमार हुई और चल बसी। श्यामा को असह्य वेदना हुई। पहले माँ, फिर बेटा और अब बेटी भी चली गयी। उनकी याद रूपी आग में तपते-तपते वह दिन बिताती। फिर भी कृष्णादास उसे नहीं छोड़ता, बिना बछड़े के दूध नहीं उतरता देख उसने एक उपाय सोचा। बछिया की खाल में धान की भूसी भरी, और नकली बछिया बनाकर श्यामा के सामने रख दिया। पर, श्यामा सब जानती थी। भूसा भरी बछिया की खाल को देखकर ममता के मारे उसकी आँखों से आँसू और थनों से दूध बह पड़ता। कृष्णादास मारे खुशी के बर्तन श्यामा के थनों के नीचे लगा देता और उसे भरकर चल देता। कभी-कभी दूध न आने पर कृष्णादास उसके थनों को बुरी तरह से निचोड़ता जिससे उसे असह्य वेदना होती और वह छटपटा उठती। इसी छटपटाहट में एक दिन दूध से भरी बाल्टी में उसका पैर लग गया और बाल्टी पलट गयी तथा कृष्णादास को भी चोट आई। 

अगले दिन से कृष्णादास पहले तो श्यामा के पैर मोटी रस्सी से बाँधने लगा। फिर उस पर डंडे बरसाने लगा। असहाय श्यामा चुपचाप खड़ी रहती और अपने दुख पर आँसू बहाती रहती। श्यामा को दुखी देखकर एक दिन श्याम ने उससे कहा, “श्यामा! मनुष्य का मतलबी प्रेम अब तुम्हारी समझ में आया?” श्यामा ने कोई उत्तर नहीं दिया, बस चुपचाप सिर झुकाए खड़ी रही। श्याम ने आगे कहा, “श्यामा, आज तुम्हें बताऊँगा कि तुम्हारी माँ कहाँ गयी?” माँ का नाम सुनते ही श्यामा की नज़रे श्याम की ओर उठ गयीं। श्याम ने कहा, “तुम्हारी माँ को कसाईखाने में बेचा गया था।” 

श्यामा की आँखें फटी रह गयीं, “पर क्यों?” “क्योंकि तुम्हारी माँ बाँझ हो गयी थी। न बच्चा दे सकती थी और न ही दूध। भला ऐसी गाय को आदमी कब तक खिलाए। इसीलिए कृष्णादास ने उसे एक कसाई के हाथों बेच दिया था।” श्यामा अत्यन्त विह्वल हो उठी। उसकी आँखों से जलधार फूट पड़ी, मेरी माँ का अन्त कसाई खाने में। श्याम ने कहा, “हाँ श्यामा, मनुष्य की जाति ऐसी ही है। मतलब का प्यार है इसका। अरे हम तो जानवर हैं, स्वार्थ के चलते ये मनुष्य अपनी ही जाति वालों को नहीं छोड़ता। तुम मत रो। हम सबका अन्त इसी प्रकार होना है। मैं भी अब अशक्त हो रहा हूँ। ठीक से काम नहीं कर पाता हूँ। ज्यादा समय नहीं है। किसी भी दिन यह कृष्णादास मुझे भी...।” श्याम ने दुखी होकर गर्दन नीचे कर ली। श्यामा ने भी दुखी स्वर में कहा, “नहीं...नहीं...ऐसा नहीं होगा।” परन्तु सच दोनों जानते थे। दोनों बहुत देर तक आँसू बहाते रहे।

समय बीतता गया। श्यामा फिर गर्भवती हुई परन्तु इसबार कृष्णादास ने उसे गोविन्द नामक उसी मवेशी दलाल को सौंपदिया जो उसके बछड़े को लेकर गया था। लेकिन श्यामा को ले जाते समय उसने यह कहा था कि प्रसव के बाद ले लूँगा। गोविन्द का काम गायों की दलाली और उन्हें चराना था। श्यामा के चारे के लिए कृष्णादास प्रतिदिन पाँच रूपये देता था परन्तु गोविन्द उसे सूखी भूसी खिलाता और चरने के लिए यहाँ वहाँ छोड़ देता था। कभी-कभी सड़क के कुत्ते श्यामा को खदेड़ते या कोई राहगीर श्यामा की पीठ पर एक लाठी जड़ देता। जिससे श्यामा असीम वेदना से कराह उठती। श्यामा अब दुर्बल हो चली थी। इसी दुर्बलता में उसने पुनः एक बछिया को जन्म दिया लेकिन इस बार बछिया मरी हुई थी। गोविन्द ने श्यामा को वापस कृष्णादास के पास भेज दिया। 

कई महीनों बाद श्यामा ने अपने पति श्याम के दर्शन किये तो उसका रोम-रोम काँप उठा। श्याम की गर्दन और शरीर में जगह-जगह घाव हो गए थे। उसकी पसलियाँ निकल आईँ थीं। अत्यन्त थकावट और कमजोरी से उसकी आँखें बन्द हो रहीं थीं। श्यामा के पूछने पर उसने बताया कि “गर्दन पर जुआ रखने से गर्दन पर गड्ढा हो गया है। उसी जगह बार-बार जुआ बाँधा गया है जिससे उसमें मवाद पड़ गया है। गाड़ी खींचते समय बहुत दर्द होता है, जिससे बहुत मार पड़ती है। उसी मार की वजह से शरीर पर घाव हो गये हैं। अब और काम नहीं होता...लगता है मेरा अंतिम समय आ गया है...” कहकर श्याम ने अपना मुँह नीचे कर लिया। नहीं-नहीं ऐसा मत कहो... भर्रायी आवाज़ में श्यामा ने कहा और रो पड़ी । इस बार श्याम की आँखें भी गीली थीं।

अगली सुबह वही हुआ जिसका डर था। कृष्णादास गोविन्द के साथ आया और श्याम की रस्सी उसे पकड़ाते हुए बोला, “अब यह काम का नहीं रहा। ले जाओ।“ सुनकर श्यामा का हृदय विदीर्ण हो उठा। आखें छलछला उठीं। श्याम ने श्यामा को समझाते हुए कहा, “मत रो श्यामा। एक न एक दिन सबको जाना है। मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा।“ श्याम चला गया। ओझल होने तक श्यामा उसकी राह तकती रही। 

उस रात बहुत बरसात हुई परन्तु श्यामा की आँखें तो जैसे सूख चुकी थीं। वह रातभर अपने जीवन को कोसती रही, ‘पहले माँ गयी, फिर बेटा-बेटी और अब तो पति भी नहीं रहा। यह आदमी एक दिन मुझे भी....’ सोचते-सोचते श्यामा सो गयी। पर इस बार हमेशा के लिए।


तारीख: 09.09.2015                                    डॉ. लवलेश दत्त









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