आखिर कोइ इन खुशियो में रूठा क्यों था

आखिर कोइ इन खुशियो में रूठा क्यों था
हमने तो कई बार गढ़ा था घर सपनो का 
सपना जिसका कुछ हिस्सा अपना और कुछ अपनो का 
हिस्सा जिसमे खुशिया थी , थी कई आशाये,
फिर भी घर का छोटा हिस्सा टूटा क्यो था 
आखिर कोइ इन खुशियो में रूठा क्यों था। 


जतन-जतन से ईट लगाकर रंग भर-भर कर 
खून पसीने की बूदो से उसको तर कर 
मेहनत की पाई पाई से छत बनाई,
पर फिर भी बाहर का छज्जा छूटा क्यों था 
आखिर कोइ इन खुशियो में रूठा क्यों था। 


आँगन था, अलमारी थी, और कई जंगले थे 
हर कमरे में दो दो रोशन-दान लगे थे 
रोज सुबह किरणों की ख्वाहिश अंतरमन में,
बार बार मन को समझाना झूठा क्यों था 
आखिर कोइ इन खुशियो में रूठा क्यों था।  


मकड़ी के जालो से बाहर झांकता आँगन 
छज्जे से किरणों का आना अति-दुर्लभ था 
रोशनदान का नाम कहा से रोशन होता, 
परे समझ से था तामस सन्नाटा फूटा क्यों था 
आखिर कोइ इन खुशियो में रूठा क्यों था।  


सपनो का घर जिसमे सपने टूट रहे थे 
तार बधे अपनो से ढीले, छूट रहे थे 
घर की छते, दीवारे भी मुरझाई हुई थी, 
छोटे कमरे आज बढ़ो से रूठ रहे थे 
घर का हर आइना दिल से टूटा क्यों था 
आखिर कोइ इन खुशियो में रूठा क्यों था।  


सपने थे अपने जिनकी बलि चढ़ाकर 
अपनों के सपनो में अपना जिस्म खपाकर 
घर की नींव में आपने बलिदानो को ठेला था, 
सपना कहा बचा था अपना जो छूटा था  
ये तो अपना भ्रम था जो अब टूटा था 
कोइ अपना था ही कहा जो इन खुशियो में रूठा था।   


तारीख: 05.06.2017                                    धर्मेंद्र तिवारी









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