भावों की गंगा है कविता

भावों की गंगा है कविता
शब्दों की जमुना है कविता 
जीवन की सरिता है कविता 
अमृत सी पावन है कविता 
सबके मनभाति  है कविता 
सब भेद भुलाती है कविता
 
माँ के आँचल जैसी है  
बेटी के पायल जैसी है 
ये घर के आँगन जैसी है
पीपल की छाया जैसी है 
बचपन की यादों में बसती
और जवानी की दीवानी में 
सावन की रातों में बसती 
और बहार की बातों में 
धर्म नहीं इसका कोई 
ये सब धर्मों में रहती है 

रूप बदलती है अपना तो
कविता ही गजल बन जाती है 
काव्य गोस्ठी से उठती तो 
मुशायरे में बस जाती है 
ये बचपन से निकले तो टूटी फूटी होती है 
भाव होते हैं मगर लय पाने को रोती है  
और जवानी से निकले तो शरारती हो जाती है
 
कुछ भाव छुपाकर रखती है ,कुछ बिना कहे रह जाती है 
जब कोई श्रेष्ठ कवि रच देता है 
तो सब का मनमुग्ध कर देती है 
और बुढ़ापे में निकले तो बड़ी मायूसी होती है 
शब्दों पे जाने कितने ग़मों का बोझ सदा ये ढोती है 
पर कविता सबके दिल में होती है
कुछ कहने की खातिर वो रूप हजारों लेती है


तारीख: 18.06.2017                                    विनीत शुक्ला









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