बिखरा थोड़ा थोड़ा

मैं भी चटका टूटा बिखरा थोड़ा थोड़ा।
जब मैंने अपने हाथों से दर्पण तोड़ा।

किर्च किर्च चुभ गयी कलेजे भीतर जाकर
आँसू एक न आया जख़्म अनोखा पाकर
धीरे धीरे दर्द बना नासूरी फोड़ा
जब मैंने अपने हाथों से दर्पण तोड़ा।

टूटे दर्पण को समेट कर फेंका जैसे
कहाँ गया मैं किधर गया मैं खोजूँ कैसे
ढूँढ रहा था पानी पर मैं उसे निगोड़ा
जब मैंने अपने हाथों से दर्पण तोड़ा।

इस तलाश में हाथ लगी केवल तन्हाई
मिली मुझे माशूका वो मेरी परछाई
दोनों थे तनहा दोनों ने नाता जोड़ा
जब मैंने अपने हाथों से दर्पण तोड़ा।


तारीख: 17.03.2018                                    राघव शुक्ल









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