प्रेम सुधा इक पत्नी से, जो सुत अभ्यागत पा न सके
स्वयं नारायण, उस उपवन, शहद वृक्ष खिला न सकें
कामदेव के पंचशरों से, जलते पादप का खग हो जो
मातृ स्तन भी उस चातक को, फिर घृत पिला न सकें
चंद्र सलोना उडुदल घेरे, चंद्रप्रभा बस हिय कानन में
भँवर ह्रदय को शेष अंक भी, निद्रा सुख दिला न सके
प्रेम जानकी मन में साधे, थे रघुनंदन जब जा टकराये
फिर दशकंध को, शिव शस्त्र तलक भी जिला न सके
जलद-चंचला सूर्य-किरण, अंबु के संग बसती तटिनी
अंतश हो जो सत्यवान, अंतक भी मृत्यु मिला न सके
अन्तर्मन के हरिमन पाखी, अतिंद्रिय को यूं कर साधो
अतिमंजुल रतिपति भी, प्रेम जलज को गिला न सके