धरा में अब भी जान है

पाञ्चजन्य बज उठा 
मनुष्य तू कहाँ खड़ा ,
ये जल विहीन भूमि है 
निशा की रंगभूमि है 
मृग विहीन ,हस्त हीन 
प्रवाह रत , दया विहीन l

कीर्तियां असंख्य हैं
मगर झुके से पंख हैं ,
स्वाभिमान का तरु  
सूख बन रहा मरू 
तेज हीन, बल विहीन, 
शौर्य छिन्न , दिशा विहीन । 

प्रत्यंचा पर चढ़ा तू वाण 
कोण का लाग निशान, 
प्रकाश के तू श्रोत से 
भिगो के वाण क्रोध से,
तू प्रहार कर वहां ,
तिमिर है बस रहा जहां । 
वहीँ से अपने वार से
तू रक्त की बौछार कर 
लहू से तार तार कर । 
भेद कर निशान को 
निशाचरों के वाण को 
तू निरस्त कर वहाँ 
प्रपंच बस रहा जहां । 

एक ऐसा कार्य कर 
प्रकाश फिर से जी उठे, 
पवन बहे धरा गगन 
समग्र विश्व कह उठे, 
धरा में अब भी जान है 
यही तेरा प्रमाण है ,
धरा में अब भी जान है 
यही तेरा प्रमाण है ।


तारीख: 10.06.2017                                    मनीष शाण्डिल्य









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