धुंआ

धुंआ ही धुआं है...
धुंआ जो अब भरम की एक दीवार खड़ी कर,
नज़र को नज़र लगने से बचा रहा है | 
भविष्य की काली जुबान से किये उन वादों
पर कभी हँसता,कभी सच्चाई तलाशता यह धुंआ |

यह अतीत हमारा जो है
वो बिस्तर के उस कोने पर बैठ कर,
कपड़ों से आधी ढकी
अपनी आँखों का काजल साफ़ कर रही है |

यादें भी इसी कमरे में
आराम कुर्सी पर बैठ कर,
हर बात हर दिन रात 
के हर ग़म और खुशी की नज़्में गा रहा है |

दशक भर पहले आई उस रात की आंधी 
में उजड़ गया वो गोरैये का घोंसला, 
एकैक आ जाता है आँखों के सामने 
गीत पुराने दर्द का गाने |

बंधे हुए इन पैरों के साथ
जी चाहता है एक दौड़ लगाने को,
पर गले को घोंटता इस सिगार का यह धुंआ 
चाहते हुए भी दिल को किसी चीज़ की चाह नहीं रखने देता |

एक पल को
अपने भीतर के खंडहर भी 
रो रोकर बहा देने की ख़्वाहिश,
दिल से होकर गुज़र जाती है 
ऐसे ही जैसे गाँव की सड़कों से धूल का एक गुबार |

क्या यह संभव हो पायेगा? 
रोयें भी हम,सोएं भी हम 
जागे भी और मर भी जाएं | 
वर्तमान का चेहरा भी ओझल सा हो रहा है | 
क्योंकि हम भी यहीं हैं तुम हो जहाँ,
यहीं कमरा भी है,दुनिया भी 
यहीं परबत भी है दरिया भी 
बस ये धुंआ ही है ग़म का घर,
ना शुरू हुआ,ना खत्म कहीं 
बस तुम हो वहां,
हम भी हैं वहीँ |
 


तारीख: 09.06.2017                                    राहुल झा









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