एक भव्य कृति

 

नितांत निश्छल निशा में दिखे कपट !
भोर भी लगे संध्या ,
कलरव कल्पित मर्सियाँ,
मन कहे- मैं थक गया,
दोषी हर जन, हर परिस्तिथियाँ,
विमूढ़ बन मैं पीछे रह गया,
अन्तः करण जड़ता से भर गया।

लांघ स्थिरता की चौखट!
देखो दिव्य स्वप्न,
अद्वितीय रखो गंतव्य,
याद आएगा-
विरासत है विकटता,
त्वरित है तमस,
संकुचित है संसाधन,
नितांत है निःस्पंदन,
फिर नकारता स्वयं मन, जग जीवन,
फिर भी-
निर्दयी रहो ,शिथिलता के प्रति,
निश्छल रहो ,मंशा के प्रति,
निडर रहो ,कर्मों के प्रति,
निष्ठुर रहो ,अपने प्रति,
निःसंकोच रहो ,कड़े क़दमों के प्रति,
अंततः
रचोगे एक भव्य कृति!
                                           
 


तारीख: 24.12.2017                                    भेड़िया









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