एक राक्षस जिसका नाम है समाज

 

कोई तो सुने मेरी आवाज़, क्या मैं कहता हूँ,
सुनने से पहले ही जवाब हैं सबके तैयार।

बोलता हूँ  मैं जो कुछ भी, पडता नहीं वो किसी के भी कान,
चिल्लाता हूँ तन्हाई में, रोता हूँ और बिलखता हूँ ।
जब हूँ मैं तुम्हारा ही अंग, और हूँ तुम्हारा ही हिस्सेदार,
कैसे नहीं होता तुमको मेरे दर्द का इतना सा भी एहसास?

समझते हो तुम खुदको सबसे समझदार, 
मैं तो हूँ पागल, करूँ आवाज़ बेकार ।
तुम कहो, मैं करूँ जो तुम चाहो हर बार, 
ना करूं अपने दिल और दिमाग का इस्तेमाल !

तुम हो कौन? जो कहते हो खुद को समाज?
है क्या अस्तित्व तुम्हारा?
जब मुझको ही जोड़ कर खुद से, लेते हो तुम यह आकार,
डरते हो मुझसे,  जकड़ना चाहो परम्परा के नाम पर बेकार ।

जो तुम्हारे कहने पर सर हिलाये,  है तुमको उसी से प्यार 
जो जरा भी अपनी सोच लगाये,  छीनना चाहो तुम उसकी  हर सांस और आवाज़।
कौन हो तुम?  क्या है तुम्हारा रूप?
मेरे जैसे सौ भी मिल जायें,  करते हैं तुम्हारी नींद यह हराम।

बस नाम है तुम्हारा समाज,  करते सारे काम तुम बेलिहाज़,
कभी मारो पत्थर मजनू को,  तो कभी करो कृष्ण के तुम गुणगान ।
बस करो बातें प्यार की,  और दूसरों के लिए त्याग की, 
नहीं दे सकते मुझे संरक्षण,  तो दो आजादी अपने हिसाब से जीने की !

जानता हूँ और समझता हूँ,  की लड़ना है तुमसे बेकार,
नहीं करनी तुमसे  मुझको कोई भी तकरार। 
हूँ मैं आज़ाद तुम्हारी ज़ंजीरो से, 
हूँ खुश तन्हा मैं,  नहीं हूँ तुम्हारा अंग आज के बाद ।

तुम थे और रहोगे हमेशा एक राक्षस 
पर मैं बनने चला हूँ आज एक इन्सान !!

-पृथ्वी बहल
  
 


तारीख: 09.08.2019                                    पृथ्वी बहल









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