कुछ पलों को जो बिठा ले पास अपने
पीर के कंटक तुम्ही तो वो सुमन हो|
और बेघर सी भतकतीं आह मेरी
खोजतीं जिसको तुम्ही तो वो सदन हो|
पी रहे निःशब्द मेरे आंसुओं को
और बचते फिर रहे हो ठोकरों से ;
अपने मन में ही छुपाये सब दु:खों को
घुट रहे चुपचाप तुम वो घन सघन हो|
हास में जग के नहीं खो पाए तुम
जब पुकारा दर्द ने तो आये तुम
जब मेरी वीरानगी के पंख कांपे
छा गए जीवन पे मेरे वो गगन हो|