हो विकल सब नभ निहारें


छाँव के वे रूप न्यारे 
घन घोर घनघोर सारे। 

धूप इतनी क्यों प्रखर है 
जीव जंतु सब विकल है 
तेज तपिश सूर्य उर्मि 
स्वेद से तरबतर उर्वी 

कैर खजूर खेजड़ी बबूल 
लग रहे सब वृक्ष प्यारे। 

उत्सविहीन मरुस्थल में 
रेत बजरी के शहर में 
सर्व क्लेश क्लांत है 
नहीं शांत, वे श्रांत है 

सागर वंदन को आतुर हो 
दिनकर के पग पखारे। 

घन बिना विपिन निर्जल है 
तीव्र अनिल भीषण दावानल है 
सब त्रस्त है संत्रास में है 
बादलों की आस में है। 

ज्येष्ठ माह के दुपहरी से 
 हो विकल सब नभ निहारे। 


तारीख: 19.10.2017                                    विनोद कुमार दवे









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