विरान हुए आकाश का सूनापन
तुम - क्यों धारण किए हो ?
संसार की नीरवता को
तुम - क्यों खुद में कैद किए हो ?
क्यों मेरे हृदय के प्राण ?
क्यों ?
क्यों तुम वृक्षों के
पत्तों की तरह
हवाओं के सहारे बह गए ?
क्यों तुम फूलों की
ताजगी, महक को छोड़
चुपचाप मुरझा गए ?
क्यों तुम अन्तस में
श्वासों की भाँति
महज एक ही बार में घुल गए ?
क्यों मेरे हृदय के प्राण ?
क्यों ?
मैं तुमसे कई - कई बार
मिलना चाहती थी
कई - कई बार
मिटना चाहती थी
तुम्हारे मौन को
कभी नहीं पूजा था
तुम्हारे मौन ने
मेरे भीतर के ज्वार को
शांत कर मुझे
निर्जीव-सा बना डाला
रक्त के प्रवाह की
तेजी को तुमने
धीमा-और धीमा कर दिया
विरान हुए आकाश का सूनापन
तुम -क्यों धारण किए हो ?
संसार की नीरवता को
तुम -क्यों खुद में कैद किए हो ?
क्यों मेरे हृदय के प्राण ?
क्यों ?
मैंने चाहा था
कि,
पवन का मदमस्त झोंका बन जाऊँ
और तुम्हारे रूखे - सुखे चेहरे की
रोशनी और चमक बन जाऊँ
तुम्हारे हदय को क्षण-भर के लिए
उत्साह दे जाऊँ
फिर तुम जीवन को कभी
नीरवता में
बांध नहीं सकोगे
जीवन - मूल्य
उसकी साधना को
उसकी सम्पन्नता को
कम नहीं कर सकोगे
फिर तुम कभी
नीरव , उदासीन ,जड़ ,
और प्रभावहीन
नहीं बन सकोगे
- मेरे हृदय के प्राण