इतिहास बदलना चाहिये

मैंने अमृत घोला जीवन में तुम्हारे
और तुमने तीन तलाक़ का विष
कानों में उड़ेल दिया

अपने आँगन की सोनचिरैया को
क्यूँ घर से बाहर धकेल दिया

मैं चुनती थी दुःख-दर्द तुम्हारे
पलकों से ग़म सहलाती थी
चहक-चहक कर निभाती थी
जिम्मेदारियाँ घर की
मूक समर्पण से गृहणी का फर्ज निभाती थी
मेरे अनुरागी समर्पण को
 क्यूँ तुमने दुत्कार दिया

मैंने अमृत घोला जीवन में तुम्हारे

 

अब्बू ने निभाई रीत जमाने की
और संग तुम्हारे जीवन की डोरी को बाँध दिया
मैंने निभाई रीत प्रीत की
और अपने अरमानों को तुम पर वार दिया
पलकों से बीने कांटे,मुस्कुराहट में छुपाये जख्म ,
हंसी में उड़ाये तंस ,बगिया में खिलाये फूल
और उन्मुक्त गगन तुमको उपहार दिया

मैंने अमृत घोला जीवन में तुम्हारे

 

बाहर से तो थी मैं भरी-भरी पर अन्दर से मैं रीती थी
तीन तलाक के साये में, मैं बस डर -डर कर ही जीती थी
जिस घर को मैं छोड़कर आयी और जिस घर में मेरा डेरा था
दोनों ही घर पराये थे कहीं न कुछ मेरा था


अम्मी के सिखाये नियमों को मैं कंठस्थ करके सोती थी
एक भी हिचकी न पहुँचे तुम्हारे कानों तक
मैं कोनों में जाकर रोती थी
मेरी किस गलती पर तुमने यह दण्ड देना स्वीकार किया
मैंने अमृत ---------------

अब्बू के रीढ़ का बोझ ही मैं बस अब कहलाऊंगी
बिन गलती के बन मुजरिम तिरस्कृत जंजीरों में
जकड़ दी जाऊँगी
मैं पूछती हूँ इस समाज से कैसे मुझे मेरी जात के दोगलेपन की
बलिबेदी पर कुर्बान किया

मैंने अमृत ---------------

अब औकात के अस्तित्व से एक हुंकार निकलनी चाहिए
एक सियासत नियम के ठेकेदारों की पलटनी चाहिये
जिस ख़ौफ के साये में रहकर हर-रोज मेरा दम घुटता था
उस ख़ौफ की एक झलक अब उन तक भी पहुँचनी चाहिये
तलाक़ देने का जो हक़ पाया है तुमने वो हक़ अब मुझको भी मिलना चाहिए
इतिहास के पन्नो से लिपटी एक गलती सुधरनी चाहिये ---------


तारीख: 16.07.2017                                    अमिता सिंह









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