कलम कहती रही पन्ना सुनता रहा
जज़्बात बन स्याही शब्दों में ढलते रहे
ना मैंने कुछ कहा ना किसी ने कुछ सुना
एक कहानी पन्ने दर पन्ने लिखती रहीं
शोर बहुत था चारों ओर फिर भी
दिल के कोने में क्यों सन्नाटा चीखता रहा
पैर चलते रहे हाथ भी ना रुके
काया भी तो हरदम घसीटती रही
फिर भी न जाने कैसे मेरा होना
किसी को न मालूम पड़ा।
चीखें बेबसी की अटकीं थी मेरी
सांसे भी मेरी सिसकती रही
एक मुकाम पर आकर
ज़ोर से मैं ने आवाज़ दी
सुनो मैं जिंदा हूं अभी ।
और उम्मीद का रास्ता तकती रही
चंद सांसें मेरी अटकीं हैं कहीं
मदद करो की लाश न बन जाऊँ
मुझसे लिपटी ज़ंजीरों को तोड़ो तो कोई
नासूर बने घावों को सहती रही
अफसोस हर देखने वाले ने किया
नसीहतों का कनस्तर भर भर दिया
मरहम एक भी मेरे घावों को न मिला
अपनी ज़ंजीरों में और उलझती रही
तभी एक आवाज़ का पत्थर लगा
ऐ औरत ये तू ने क्या नया कहा
हर औरत की एक सी हीं कहानी
सदियों से तू तो ज़िन्दा यूं हीं रही
न जी सको तो मौत का चुनर ओढ़ लो
या हंसते हुये हर सड़ते ज़ख्म सह लो
ले लिया तेरा सब जो लेना था उन्हें
अब जरूरत तेरी किसी को न रही
स्त्री बनते हीं ज़िंदगी तेरी छीन ली गई
उपभोग की वस्तु मात्र हीं बन तू गई
हालात सदियों से ऐसे हीं तेरे रहे
न जी सकी वो मौत को गले लगाती रही