जूझ

 

    कुछ हल्की-गहरी 
    आड़ी-तिरछी , टेढ़ी-मेढ़ी ,
     एक-दूसरे को काटती
     गांव-शहर , नदी-नाले बनाती ,
     सिलवट लिए
     जीवन को उकेरती रेखाएं ।

 

     बंद पड़ी मुट्ठी में 
     उपजती-पनपती गंध ,
     थक-हार चुके जीवन में
     जग-जीवन की अभिलाषा ,
     फुटपाथ की अंगूठी पहन
     चुनौतियों से लड़ती आशाएं ।

 

     मटमैली शर्ट पहने
     कॉलर पर काली-कालिख लिए ,
     दौड़ती-भागती।  ,  कूदती-फांदती
     एक-दूसरे को कुचलती भीड़ में ,
     दफ्तर-दफ्तर दस्तक देती
     चार-पेट वाली भाव-भंगिमाएं ।

 

    अविरल-अबूझ पहेली
    दादी के किस्सों का सार ,
    कोई धूमिल पड़ी छवि
    हवा के थपेड़े खाती हुयी ,
    मुस्कुराकर गा रही हो
    यह जीवन-मरण की गाथाएं ।


तारीख: 18.07.2017                                    अतुल मिश्र "अतुल अकेला"









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