खिड़की

एक खिड़की है मेरे सिरहाने 
जो झांकती रहती है मुझे पूरी रात
बंद कर देता हूँ तो हवाओ को बुला लेती है
और फिर देखने लग जाती है मुझे।

परदे बड़े यार हैं इसके
घूँघट बने रहते हैं
ये अल्हड़ हटाती रहती है उन्हें

एक लड़की का खंभा
जो इसी का कोई आशिक़ लगता है
हर वक़्त इसी की तरफ झुका चला आता है।

न देखु इसे तो मायूस हो जाती है
मुँह फेर लेती है,
थक हारकर मै भी, चला जाता हूँ इसके पास
रख देता हूँ सर इसके काँधे पर,
जाने क्या फुसफुसाती है,
समझ नहीं आता

घूँघट ओढ़ा कर वापस चला आता हूँ 
फिर ये चुप चाप सी सो जाती है।
एक खिड़की है मेरे सिरहाने ।


तारीख: 21.06.2017                                    अंकित मिश्रा









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है


नीचे पढ़िए इस केटेगरी की और रचनायें