ठिठके से बादलों के टुकड़े हैं,
चुप-चुप सी आज ये हवा क्यों है,
शायद सब लोग थक गए हैं,
शायद स्पंद सो गए हैं|
भरी-भरी ताल की निगान्हें हैं,
गुमसुम-से अलग-थलग द्वीप हैं,
शायद सब लोग दर्द पीते हैं,
शायद कुछ मेघ रो गए हैं|
मंडराता भटक रहा कोहर है,
इधर-उधर भाग रहीं सड़कें हैं,
शायद सब लोग ढूंडते-से हैं,
शायद वे स्वप्न खो गए हैं|