खो गए हैं 

 

ठिठके से बादलों के टुकड़े हैं,
चुप-चुप सी आज ये हवा क्यों है, 
शायद सब लोग थक गए हैं,
शायद  स्पंद  सो गए हैं|

 

भरी-भरी ताल की निगान्हें हैं,
गुमसुम-से अलग-थलग द्वीप हैं,
शायद सब लोग दर्द पीते हैं,
शायद कुछ मेघ रो गए हैं|

 

 मंडराता भटक रहा कोहर है,
इधर-उधर भाग रहीं सड़कें हैं,
शायद सब लोग ढूंडते-से हैं,
शायद वे स्वप्न खो गए हैं|
 


तारीख: 03.08.2017                                    राज हंस गुप्ता









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