किलकारियाँ

ये किस तरह का दौर है
चहुँओर कैसा शोर है
                   क्यूँ गूँजती किलकारियाँ
                   अब चीत्कार में तब्दील है
है किस तरह की परवरिश
ये कौन सी वो झील है
                   स्तब्ध सी अम्बर में उड़ती
                   चिड़ियों के संग चील है
इन्सान के आचरण में हुई
किस तरह की ये ढील है
                  ये किस तरह के गुरुकुल है
                  ये कौन से वो स्कूल है
ये कैसी शिक्षा उन्नति 
है संस्कार कहाँ संस्कृति
                जिसके आगे दुशासन का
                 कृत्य भी लगता शालीन है
उन्मुक्त सी इस बगिया में
क्यूँ सहमीं सी ये कलियाँ है
                 गुज़रो कभी उस मोड़ से
                जहाँ सोच की तंग गलियाँ है
दावा मेरा ये आपसे
बयाँ ना कर पाओगे
               जब घेरें में घिरोगे सवालों के
                तो बेकार सब दलील हैं
हर रोज़ नयें आयाम 
गढ़ रही हैं बेटियाँ
               बदल लो अब सोच अपनी
               जो तरक़्क़ी में उनकी कील है
क्या सच में नहीं लगता तुम्हें
की प्रश्न ये ज्वलनशील है..
    
       


तारीख: 27.08.2019                                    रेखा कँवर सिहँ









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