ईश्वर ने स्त्री को रचा,
कोमलता, सुघड़ता, प्रेम, कला के रंग भरे
पर कुछ था जो छूट सा गया...
फ़िर ईश्वर ने पुरुष को रचा,
कठोरता, जटिलता, पौरुष भरते हुए कठोर से रंग भरे
पर अब नृत्य, संगीत जैसे आयाम पीछे छूट गए...
बड़ा परेशान था सृजनहार,
इन विपरीतगामी रंगों को कैसे संग संग लाए...
हाथों में सृजन तूलिका लिए बैठा परेशान था,
कि मां अरिष्टा और कश्यप ऋषि ने
ब्रह्म के पैर के अंगूठे की छाया में कुछ नवीन रचा...
जिसमें पुरुषत्व के गहरे रंग तो थे ही
पर, प्रेम और कला का समागम भी था
जिसमे,
कोमलता, कठोरता के कठोर आवरण में यूँ छुपी थी
ज्यूँ नारियल पानी को छुपाकर सहेजता है
और
जटिलता, सुघड़ता के साथ उसी तरह प्रवाहमान थी
ज्यूँ तीखे मोड़ों पर भी नदी आराम से गुजर जाती है
अहहाआ... यही तो, यही तो ईश्वर अब चित्रपटल पर उकेर रहे थे...
और ईश्वर खुशी से नाच उठे...
और कहा कि जहां भी मंगल कार्य होंगें
वहां यह नवाकृति नृत्य कला के रूप में मेरा आशीर्वाद पहुंचाएगी
और उन्होने इस नवीन सृजन को नाम दिया "मंगलामुखी"
परंतु...
मां अरिष्टा और कश्यप ऋषि चुप से थे, उदास से थे
कि, मंगलामुखी प्रजनन क्षमता विहीन कृति थी,
अर्थात, स्वप्रतिकृति को जन्म देने की काबिलियत रहित...
तो ईश्वर ने मुस्कुरा कर कहा...
"यह तो प्रकृति के नियमानुकूल ही है"
स्त्री व पुरुष के आकर्षण की मुख्य वजह,
उन दोनों की अपूर्णता है...
जो उन्हे मिल कर पूर्ण होने को आकर्षित करती है
चूंकि नवसृजन, स्त्री व पुरुष दोनों के गुणधर्मों से पूर्ण है,
तो यह निश्चित रूप से इस आकर्षण से ऊपर ही होगा,
और जो इस आकर्षण से ऊपर हो,
उसकी नियति,
आकर्षण जनित प्रजनन से विहीन अवश्यमभावी होगी...
अतैव किं+नर अर्थात स्त्री+पुरुष के गुणोंयुक्त मंगलामुखी,
मेरे अर्धनारीश्वर रूप का ही परिलक्षण होगा...
अस्तु...
परंतु तभी किन्नर बोल पड़ा,
हे देव,
मानता हूँ कि मैं आकर्षण की सीमाओं से परे सृजित हुआ हूँ,
परंतु इच्छाओं का दास तो मैं भी रहूंगा ही,
और आपने मेरे इस सृजन रूप में,
विवाह बगैर असंपूर्ण रहने की अग्नि से जलने को श्रापित कर दिया है...
तदैव,
इस दुख से किन्नर को परे रखने को,
स्वयं अरावन देव ने हर वर्ष एक दिन के लिए,
किन्नर से विवाह करने की इजाजत मांगी...
और साथ ही कहा,
कि हर वर्ष वो एक दिन को सुहागन रहेगा
और,
विवाह के अगले दिन अरावन देव की मृत्यु के साथ ही,
बाकी वर्ष मंगलामुखी के वैधव्य को निर्धारित हुआ...
इस वैधव्य की वजह से ही
जो मंगलामुखी, मंगल कार्यों हेतु सृजित हुआ,
उसने स्वयं के जीवन के मंगल कार्यों को भी त्याग दिया...
इसीलिए आज भी सभी किन्नर,
अन्य नवजात के जन्म पर मंगल गाकर ईश्वरीय आशीष हमें देते हैं
परन्तु,
कंही भी नवकिन्नर के जन्म पर रोते हैं
और, किन्नर की मृत्यु पर मंगलगान करते हैं...
मैं जब भी इन्हे देखता हूँ,
इक अजीब सी सोच में डूब जाता हूँ,
कि आख़िर किस तरह से सृजनहार इन्हे संचालित करता है,
कि,
इन वैधव्य श्रापित उबलते तेल के दियों के कंठ से
सदैव,
हर आंगन में,
मंगल-गीतों के रूप में गंगाजल ही प्रवाहित होता रहता है
और,
जब जब मैं ऐसा सोचता हूँ,
इनके प्रति सदैव पहले से अधिक श्रद्धा से भर उठता हूँ..