सूख गए मानस डूब गए हंस
अपने ही हाथों रचे विध्वंस
गूथ नहीं पाया मन मनकों में वंदन
आरती के कंठ में गूंज रहे क्रंदन
झर-झर कर फूलों ने बीजे एकांत
भीग गयी कलियों ने मूंदे दृग क्लांत
गुरुतायें ढो-ढो कर उभरे स्कंध
सेतुओं को तोड़कर बहते संबंध
रुकरुक कर कलरव यों करता बन-पांखी
जैसे मौन ढोती हों बातों की बैसाखी
खींचते हैं बार बार सम्मोहते गह्वर
डंक मार जाते हैं ज़हरीले मंतर