कुर्सी के प्रेत (कुण्डलिया छंद)

१.जनता को हैं लूटते , नेता रूपी चोर।
गली गली में जाइ के, मचा रहे हैं शोर।
मचा रहे हैं शोर,नींद से अब हैं जागे।
आया देख चुनाव,पैर रख सर पे भागे।
कहे विमल कविराय,काम भाषण से बनता।
आये जभी चुनाव,तभी दिखती है जनता।

२.मारे मारे फिर रहे, कुर्सी कारण लोग।
गिद्ध रूप अवतार ले,करते मानव भोग।
करते मानव भोग,पेट अपना हैं भरते।
जनता है बेहाल,ऐश हैं नेता करते।
पीते हैं ये खून,बने हैं खटमल सारे।
बन कुर्सी के प्रेत,भटकते मारे मारे।

३.कपड़े पहने श्वेत हैं,अंदर काला चोर।
कुर्सी की खातिर सभी,लगा रहे हैं जोर।
लगा रहे हैं जोर,सभी कालाधन खरचें।
कौए बनकर हंस,घूमते अब हैं फिरते।
कहे विमल कविराय,अनगिनत इनके लफड़े।
लड़ते वही चुनाव,फटे हैं जिनके कपड़े।

४.डंका बजा चुनाव का,जाओ प्यारे जाग।
नेता जी ले वोंट को,फिर जाएगें भाग।
फिर जाएगें भाग,करेगें फिर मनमानी।
बदलेगें फिर भाव,बदल जायेगी बानी।
करते भ्रष्टाचार,बदलें न इनके अंका।
आयें जब ये गाँव,बजा दो इनका डंका।

५.बरखा आई देखकर,मेढक जाते जाग।
टर्र टर्र टर्राय कर,फिर सब गाते राग।
फिर सब गाते राग,बैठकर गाल बजाते।
पाने को तब वोट, सभी मेढक टर्राते।
कहे विमल कविराय,चलता सियासी चरखा।
मेढक दिखते खूब,कभी जब आती बरखा।


तारीख: 22.08.2019                                    विमल शर्मा विमल









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