क्योंकि मैं औरत हूँ न

कर डालो मेरा व्यापार 
या बेच दो बीच बाज़ार,
दीर्घकाल से करता राज 
तेरी दुनिया,तेरा समाज!
मैं कुछ न बोलूँगी 
प्रत्येक यातना झेलूँगी
क्योंकि मैं औरत हूँ न!

यद्यपि करके कष्ट सहन 
करूँ दायित्वों का निर्वहन 
संभालूँ निज घर परिवार 
पाया यही मैंने संस्कार!
मुझपे सबका हक बेशक 
नहीं किसी पर मेरा हक 
क्योंकि मैं औरत हूँ न! 

घर-आँगन की फुलझड़ी 
विवशता में है जकड़ी 
यहाँ समाज पुरुष प्रधान 
फिर क्यों मिले हमें सम्मान 
यह उपेक्षा और तिरस्कार
करती जाऊँ सब स्वीकार
क्योंकि मैं औरत हूँ न!

विविध रस्मों का ओढ़ कफ़न 
कारागृह सा है जीवन 
आँसू आजीवन पीना है 
घुट-घुटकर ही जीना है 
नहीं आज़ादी शीश उठाना 
चाहे कोई करे मनमाना 
क्योंकि मैं औरत हूँ न!

महज़ वासना की दुकान 
आज यही मेरी पहचान 
करके सदा ही दोषारोपण 
करती रही है दुनिया शोषण 
करने को सृष्टि-विस्तार 
सहती हूँ असहनीय भार 
क्योंकि मैं औरत हूँ न!


तारीख: 12.08.2017                                    कुमार करन मस्ताना









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