क्षितिज था द्रवित जहाँ
हलकी सी लालिमा समेटे हुए
नाविक अपने पतवार की तूलिका
जिसमें था पिरोये हुए |
डोलती हुई डालियों से
छन छन के धूप झांकती रही
चकाचौंध थी नज़रें मगर
उस कलाकार को निहारती रही |
राही पहुँच रहा था तट पर
उजाला कम पड़ने लगा था जब
बिखेर लाया था अपने संग लाल नारंगी रंग
धरती से गगन उसमे डूबा था तब |
बिजली की रौशनी से चमक उठा था
चंद्राकार किनारे का पग
उसपर आ बैठा सूर्यास्त का सूरज
हीरे जड़ित अंगूठी में ज्यों मूंगे का नग |