सजाकर रंगोली भावनाओं के
द्वार तले
पूछेंगे बेचैन रूह से क्या है आज
फ़ुर्सत तुझे
मिलने को अपने-आप से ही
खुल के गले
आज अपनी ही निगाहों में
बहुत सवाल होंगे
उम्र की सांझ तक न खोज पाये
वो जवाब होंगे
आज शिकायतों का पिटारा भी
बहुत मग़रूर होगा
उजाले का एक लम्हा उसे भी
नसीब होगा
बहुत उलझी हुई है मेरे भीतर
की डोर
कहाँ से पकड़ू कहाँ से छोड़ूं
कहाँ से बुनू कहाँ से उधेड़ दूँ
सोचते-सोचते सरक जाता
है पल
बहुत भीतर तक जम चुकी काई
फिसला देती है ऐतबार
समुन्दर से सीपी ढूंढने की
काँपता वज़ूद सुना देता है चटक
कमज़ोर डाल टूटने की
टूटा तिलिस्म अपनी ही शक्ल
भयानक बना देता है
समझौते का चक्रव्यूह अंतःद्वंद्ध से
बाहर उबरने नहीं देता
बवंडर का सैलाब पतवार हाँथ में
थामने नहीं देता
और मैं चेतना के आसपास पनपी
तमाम लहर भर लेती हूँ
नैनों के कोरों में
और छलका देती हूँ सुनामी
उड़ा देती हूँ दिमाग़ के धुयें को
बेफ़िक्री के छल्लों में
और थपथपाकर अपनी पीठ
सोचती हूँ अभी जल्दी है क्या
बैठेंगे कभी फुर्सत से
अभी जल्दी है क्या बैठ ही जायेंगे कभी...