दर्पण

बोले टूटकर बिखरा दर्पण, कितना किया कितनों को अर्पण,
बेरंगों में रंग बिखेरा, गुनहगार को किया समर्पण।

जो भी देखा, उसको वैसा, उसका रूप दिखाया,
रूप-कुरूप बने छैल-छवीले, सबको मैंने सिखाया,
घर आया, दीवार सजाया, पर विधना की माया,
पड़ूँ फर्श पर टुकड़े होकर, किस्मत में ये लिखाया।

चलती है सबकी मनमानी, जिद करने की सबने ठानी,
न चलता जब ज़ोर किसी पर, बाद मेरी है बारी आनी।
किसी की ठोकर, किसी के पत्थर, किसी के हाथ चलें तूफानी,
टुकड़ा टुकड़ा कहे निरंतर, मेरा हाल बस मेरी जुबानी।

नाई के दर दहल मैं जाता, कैंची की जब पहल मैं पाता,
जमी गर्द और पानी-छींटे, अब किस्मत मैं कहाँ से लाता?
फेर कभी जो कपड़ा देता, तो रब उसका क्या है जाता!
नाई को पैसों से मतलब, उढ़ते बाल तो मैं ही खाता।

शीशमहल के सूने मंज़र, दिल में चुभते उनके खंजर,
सूनापन हर ओर समाता, मेरी आँखें बंजर बंजर,
शीशमहल के शीशे कहते, और भी टुकड़े होंगे अंदर,
गृहकलेश और वाद-विवादन, हमको बना दिया है खंडर। 

सजनी के मैं संग का साथी, मुझको देखे निहारे,
मुझमें हँसती, मुझमें बसती, सौंह करे बड़े न्यारे।
बाल सँवारे, नैन हैं कारे, देख के अँखियाँ मारे,
मुझको रखती सामने अपने, दिखते प्रियतम प्यारे।
देर तलक न चले ये किस्से, गढ़ गया वहाँ खफा का खूंटा,
प्यार प्रेम का दरख जहाँ पर, जम गया वहाँ जफा का बूटा,
तस्वीरों के शीशे बिखरे, जैसे था सब हमने लूटा,
सजना रूठा, सपना छूटा पर टुकड़ों में था मैं टूटा।
कितने ही किस्से मैं सुनाऊँ, सबमें अपना हाल ये पाऊँ,
चाहत मेरी इतनी सी बस, बेदर्दी न तोड़ा जाऊँ।


मेरे अंदर एक समंदर, लाखों राज़ छुपाऊँ,
जो मुझसे जैसा है पूंछे, उसको वैसा बताऊँ।
कितनों के तू दर है भटका, कितने रूप सँवारे?
दानी हों या रंक-फकीरे, सबके ही, मेरे प्यारे!
कैसे तू बनके है आया, कौन है तुझे तराशा?
आग तपिश और रजत कशिश, इतनी ही मेरी आशा!
कैसी है तेरी बोली भाषा, कैसे हैं तेरे नैना?
तेरी बोली मेरी भाषा, दीद तेरे मेरे नैना।
कौन कौन से रूप हैं तेरे, कैसी तेरी काया?
जिस मानव की मुझमें छाया, उसका रूप समाया!
कैसे तू हँसता है दर्पण, कैसा तू भी रोता है?
रोना तेरा, हँसना तेरा, जैसा तू भी होता है!
कौन से रंग हैं तूने देखे, कौन सा है मन भाया?
सुर्ख लाल और श्वेत, सांवरे, जो भी जैसा लाया!
इतने रंग हैं इस दुनिया में, क्यों तू है बेरंगा?
जो भी मुझमें जैसा देखा, उसके रंग मैं रंगा!
है टूटना तुझको आखिर, क्यों फिर बनता बार बार तू?
गर जवाब दूँ हँसके इसका! हो जाएगा कर्जदार तू।


तारीख: 06.06.2017                                    एस. कमलवंशी









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