नन्हा बचपन

इस कविता में कवि पुनः अपने बचपन में लौटना चाहता है  । कि कैसे बचपन में वो  खिलखिला कर हँसता था ।बेवजह डर जाता और माँ के आँचल में दुबक जाता था । अब वो युवा हो चुका है तो वो कितना बदल गया ।कहानिया बुनना सीख गया है, चुनाव करना आ गया, हिसाबी बन गया ।परन्तु अब वह लौटना चाहता है पुर्णतःसम्पूर्ण बन, श्रद्धा कोमलता को धारण कर अपने बचपन को फिर से जीने की तमन्ना है इसी विचार को प्रदर्शित करती है यह कविता “नन्हा बचपन” 


समय के असीम प्रवाह में 
अंतहीन खामोशी- सा
बहता चला गया 
               - नन्हा बचपन 


जवानी पर महकते फूलों का 
प्रभाव था या 
बेसुध होती हवाओं का 
दूनिया बड़ी होती गयी और 
हम छोटे- बहुत छोटे होते गए 
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कहानियाँ बुनना सीख गए
चुनाव करना सीख गए 
वक्त ने हिसाबी बना दिया 
तन्हा रहना सीखा दिया 
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पीछे छूट गया 
             नन्हा बचपन 
वो बेपरवा हँसी 
वो डगमग- सी चाल 
वो बेवजह डर जाना 
माँ के आँचल में दुबक जाना 
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मैं फिर लौटना चाहता हूँ 
------ उसी नन्ही दूनिया में 
खिलखिला कर हँसना चाहता हूँ 
बेवजह रूठना चाहता हूँ 
थोड़ा जिद्दी और नासमझ 
 बनना चाहता हूँ 
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मैं फिर लौटना चाहता हूँ 
टूटी- फूटी, धूमिल सड़कों पर 
जहाँ तपती धूप में 
जलते पाँव अपने आकार से 
सहज ही सिकुड़ जाया करते थे  
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मैं फिर उन आम्र-वृक्षों पर 
झूलना चाहता हूँ 
जो मेरे इशारे मात्र से 
झुक जाता था 
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मैं फिर गायों- भैंसों के बीच 
गोबर से सने आँगन पर
अपनी छाया देखना चाहता हूँ 
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मैं फिर लौटना चाहता हूँ 
उन लहलहाती फसलों में 
जो आँखों की नमी और 
होंठों की कसक मात्र से लहराकर 
मेरे चरणों की  गति बनते थे 
जो मेरे कोमल पाँव के स्पर्श को 
अपना स्वर्णिम सौभाग्य समझते थे 
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मैं फिर लौटना चाहता हूँ 
सम्पूर्ण बन कर 
दृढ़ होकर 
ममता, मानवता, और श्रद्धा को

धारण कर 


मैं फिर लौटना चाहता हूँ 


तारीख: 03.08.2017                                    आरती









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