जिसने तुमको जन्म दिया है,उसको क्या दे पाओगे!
'फ़ादर्स-डे',अपने पप्पा को कैसे बहलाओगे?
गूगल या अखबार देखकर याद तुम्हें भी आती है,
पापा के मन की कमज़ोरी की,आहट ली जाती हैं।
कविताएं,यशगाथायें,'कोटशन' 'net' पर बिखरे हैं,
क्या काटें-क्या चिपकाएँ ,सब बच्चे हिक़मत करते हैं।
इन्हें सजाकर भेज,सभी, अच्छे-बच्चे बन जाते हैं
'वीडियो-कॉल','चैट' करके, कर्तव्यों से तर जाते हैं।
धूल खारहा फोन अचानक,चौंकाता-सा बजता है,
उसमें से बच्चों का आदर-स्नेह, 'फूल-सा झरता' है।
हतप्रभ,मूक सभी 'डैडी',यह खेल देखने लगते हैं,
पितृ-प्रेम का अच्छा नाटक ,सब बच्चे कर लेते हैं।
तारीफ़ें..,प्यारी-बातें सब, निरी ' मॉकेरी लगती हैं,
'शॉल लपेटी जूती सी',आकर कानों में चुभती हैं।
कुछ बच्चे,जो 'रिच' हैं,उपहारों के दाँव दिखाते हैं,
वह बाज़ारों की खिड़की,इक 'क्लिक' सेही खुलवाते हैं,
चीनी-रहित मिठाई,टाई और कपड़े बंधवाते हैं,
बुके,छड़ीऔर इत्र,पिता को सस्ते में भिजवाते हैं।
कुरियर-वालेकी घंटी से, सूना घर हिल जाता है,
क्षुब्ध-क्रुद्ध और म्लान हाथ में, थमा पैक थर्राता है।
पूरे साल कहाँ थे तुम! क्यों याद तुम्हें यह आया है?,
क्यों,कैसे,किस मतलब से,हमको उपहार दिलाया है?
मान नहीं, अपमान-सरीखी,गिफ्ट तुम्हारी लगती है,
सच मानो! 'कुत्तों को फेंकी हड्डी' जैसी लगती है।
स्नेह,प्यार,सम्मान नहीं, सामान हमें भिजवाया है!
पाल-पोसकर बड़ा किया,क्या इसका loan चुकाया है?
अपने पैसे रक्खो तुम,अपनी दुनियाँ में मस्त रहो ,
देना है कुछ?तो वह दो,जिस से तुमको कुछ कष्ट नहो।
एक माह में सिर्फ हमें तुम, एक संदेसा भिजवा दो,
सकुशल,हँसी-ख़ुशी सेहो सब,बस इतना ही बतला दो।
अगर कुछ समय किया यहीतो,हमको बड़ी खुशी होगी,
मौन पड़े इस घर में शायद, जीवन की आहट होगी....