संधान

नंदीगण कैलाश लौटते,   अस्तांचल को उजियारा
छलछंदी रजनी चढती,  लिये निस्तत्व सा संदर्पण
 
दृष्टिहीन सा लक्ष्य ढूंढता, हो निष्काम हूँ रणगोचर
पास किनारा-दूर क्षितिज, पहचान मेरी पूछे दर्पण
 
अतिसाहसी, महापराक्रमी, गिर पङते कभी कभी 
निरुद्ध पिपासित सूतपूत्र,  कृष्ण ताकते अभ्यर्पण 
 
काल तिमिर सून-तूं लाख प्रलय बून, हाँ मैं झेलूंगा
हूँ अग्निशिखा सूत, ये जग देखेगा संधान समर्पण
 
तूं निर्धायी तूं सर्वज्ञ, हूं भले परास्त मैं, पर न हारा
ले वक्त तूझे खुली चुनौती,  नहीं मरेगा मेरा हर्षण
 
करके खुद को अर्पण, छिन ही लूंगा पूर्ण संतर्पण 
या लहकेगा मेरा परचम, या फिर होगा मेरा तर्पण 

 


तारीख: 04.07.2017                                    उत्तम दिनोदिया









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