नंदीगण कैलाश लौटते, अस्तांचल को उजियारा
छलछंदी रजनी चढती, लिये निस्तत्व सा संदर्पण
दृष्टिहीन सा लक्ष्य ढूंढता, हो निष्काम हूँ रणगोचर
पास किनारा-दूर क्षितिज, पहचान मेरी पूछे दर्पण
अतिसाहसी, महापराक्रमी, गिर पङते कभी कभी
निरुद्ध पिपासित सूतपूत्र, कृष्ण ताकते अभ्यर्पण
काल तिमिर सून-तूं लाख प्रलय बून, हाँ मैं झेलूंगा
हूँ अग्निशिखा सूत, ये जग देखेगा संधान समर्पण
तूं निर्धायी तूं सर्वज्ञ, हूं भले परास्त मैं, पर न हारा
ले वक्त तूझे खुली चुनौती, नहीं मरेगा मेरा हर्षण
करके खुद को अर्पण, छिन ही लूंगा पूर्ण संतर्पण
या लहकेगा मेरा परचम, या फिर होगा मेरा तर्पण