तोहमत

तहज़ीबी काज के मारे
मैं अपने घर के आँगन में
सच्ची बातों को कह पाने से
सकुचाती हूं, घबराती हूं
मैं जब जब समय के उस पहलू में
अपने आप को पाती हूं, घबराती हूं

घबराती हूं की कोई जान न ले कि
क्यूँ ये थोड़ी कम चंचल है
क्यूँ ये आँख चुराती है
क्यूँ ये बोझिल सी दिखती है
क्यूँ घड़ी घड़ी मुसकाती है

पर घबराना इस बात से भी है
कि आखिर वो क्या सोचेंगे
और इनमें मेरे घरवाले हैं
जो हरदम मुझको कोसेंगे
लेकिन गलती कुछ मेरी भी है
जो ज़बान पे रूकती बातों को
हर वक्त कुचलते जज्बातों को
अपने सीने में पी जाती हूं

अनजान से चेहरों की खातिर
एक मेरे उस अपने को
हर बार मैं धोखा दे जाती हूं
और फिर घबराती हूं, डर जाती हूं
अंदर अंदर ही मर जाती हूं
सकुचाती हूं, घबराती हूं

मैं जब जब समय के उस पहलू में
अपने आप को पाती हूं, घबराती हूं
घबराती हूं की कोई जान न ले कि
मैंने छोटी छोटी खुशियों को
अरमानों के धागे से सीकर
सबकी आँखों से उन्हें चुराकर
रखा है इस दिल के भीतर

और उन अरमानों की बात न पूछो
उनमें एक मेरा छोटा सा घर है
घर के आगे बाग़ बगीचे
और ऊपर नीला वाला अंबर है
उस अंबर में चिड़िया उड़ती है
मेरे सपनो के पंख लगाये
और मेरी सारी इच्छाओं को
जो दसों दिशाओं तक ले जाए


तारीख: 05.06.2017                                    आयुष राय









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है