ये कैसी हवा, कि बच्चे बाप के नसीहती हो गये
सब बह गये हैं, अब बाप में वो जान भी कहां है
माना मैकाले मिटा गया मेरी विरासत की दलीलें
पर होते थे जो मिसाल, वो अब इंसान भी कहां है
चुन्नी हो गयी बोझ, दामण का फिर जिक्र ही कहां
तमीज ओ तहजीब की, अब वो पहचान भी कहां है
चंद कागज के टूकङों पर पिघल जाती है रूह
कहने को कहो कुछ, अब वो ईमान भी कहां है
यहां तक तो ठीक पर,
जब भगते की शहादत पर सजता है प्रेम दिवस
तो फिर मूझ जैसा अदना पशेमान भी यहां है
जब सरस्वती के मंदिर से आयी अफजल की हुंकार
तो फिर वीणा की तरंग परेशान भी यहां है
विवेकानंद जैसे जिसकी आन बनाने को मर गये
उसे करने बदनाम, औवेशी से बद्जुबान भी यहां हैं
योगी हनुमनथप्पा आठ दिन यम की आंखों में आंखे डाल देता है
और वामपंथी अब तलक, योगदिवस पर हैरान भी यहां हैं
पर फिर ये भी सोचता हूँ, कि
माना पश्चिम की हवा बुझाने को है आमद हमारा दिया
पर जो ना फङफङाये, तो उस लौ में जान भी कहां है