चीख मेरी अनसुनी की हर किसी ने,
ना किसी ने पाँव से काँटा निकाला।
वेदना के गीत फिर गाने लगे हम,
दर्द को ओढ़ा बनाकरके दुशाला।
प्रेमिका बनकर मिली हमको विवशता,
बन गयी अर्धांगिनी मेरी हताशा।
कुण्डली के बारहो खानों में आकर,
घर बना रहने लगी गहरी निराशा।
रह गए हम मात्र बनकर मूक दर्शक,
बन गया जीवन हमारा रंगशाला।
वेदना के गीत फिर गाने लगे हम,
दर्द को ओढ़ा बनाकरके दुशाला......
हाथ में धूमिल पड़ी थी भाग्य रेखा,
अश्रुजल से था लिखा प्रारब्ध मेरा।
रोशनी को खोजने जब जब चले हम,
रोज धमकाने लगा हमको अँधेरा।
बस निराशा के ही सिक्के हाथ आये,
वक्त की गुल्लक को हमने जब खँगाला।
वेदना के गीत फिर गाने लगे हम,
दर्द को ओढ़ा बनाकरके दुशाला........
हर तरफ घेरे हुए थे काग सारे,
प्रीत के पंछी प्रवासी हो गए थे।
तोड़कर सम्बन्ध सारे इस जगत से,
हम कहीं एकान्तवासी हो गए थे।
आँधियाँ अवसाद की चलने लगीं जब,
तब कलम कागज ने हमको था सम्हाला।
वेदना के गीत फिर गाने लगे हम,
दर्द को ओढ़ा बनाकरके दुशाला.