आतंकवाद

आतंकवाद का विषद अवतार, मानवता को संकीर्ण कर रहा,
इंसान ही नरभक्षी बन मासूमों का संहार कर रहा।
इस पावन धरती को किलकारियों की जगह चीख दे रहा,
माँ को सूनी गोद दे, उसकी बद्दुआएं अपने नाम कर रहा।  
आतंकवाद का विषद अवतार, मानवता को संकीर्ण कर रहा। 

फूलों को अँधाधुँध मसल,
क्यारियों को दर्द दे रहा,
धरती को लहूलुहान  कर अपने पग उसपर रख रहा,
निर्दोषों के खून बहा, खुद अपनी प्यास बुझा,
उनके नन्हे हाथ काटकर, खुदको संतुष्ट कर रहा,
अपना ये निर्मम रूप दिखा, जाने क्या जता रहा।
आतंकवाद का विषद अवतार, मानवता को संकीर्ण कर रहा।

अपने खोखलेपन का जश्न मना रहा,
अपनी बर्बादी पर खुद ही ठहाके लगा रहा,
उनको मौत की नींद सुला, खुद प्यार के ख्वाब सजा रहा.
उन्हें अल्लाह के पास भेजकर ,
खुद पैग़ाम  की आस कर रहा,
उनके सुकून तक का हक  छीन खुद 
अमन की दरकार कर रहा,
आतंकवाद का विषद अवतार, मानवता को संकीर्ण कर रहा।

पाक पृथ्वी के दामन को, हैवानियत से तार तार कर रहा
प्रकति को बंजर बना,
अपने सुख को सींच रहा,
बदले की दुहाई दे,
अपने  मैलेपन को दूर कर रहा,
इंतकाम का कफ़न ओढ़,
पागलपन की पराकाष्ठा कर,
बार बार अक्षम्य अपराध कर भी,
बख़्श दिए जाने की आरज़ू कर रहा,
आतंकवाद का विषद अवतार, मानवता को संकीर्ण कर रहा।


तारीख: 21.06.2017                                    शालिनी सिंह









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