आहिस्ता आहिस्ता

आहिस्ता आहिस्ता
वक्त ने दस्तक दी
ज़िन्दगी का मोड़ ही 
अचानक बदल गया। 

अभी पहली सुबह 
चाय का प्याला, 
मधुर संगीत, 
मेरा हमसर, 
ज़िन्दगी के अनजाने ख्वाबो
मे मन डुबकी लगा रहा था। 

बदलने लगा था ये जीवन, 
चल रही थी इक लहर 
ना जाने किस ओर जाना था, 
अभी फिर मेरी ज़िन्दगी 
की शाम है, शांत सी
हजारों सवाल, 
वही ही तो शाम है, 
मन अठखेलियाँ कर रहा
खुद से, सोच रही हूँ 
हमसफर वही है तो
सफर अलग सा क्यों 

लगने लगा, गृहणी हूँ 
तो क्या, मेरे भी 
कुछ हसरते हैं, 
कुछ हक है, 
कुछ बचपना हैं,
बचपना क्यों होता अब 
बच्चे जो सम्हालने है, 
हर दिन बँध चुका है खुद से
वक्त सा भी वक्त नही है 
अब मेरे पास, किसके पास 
होता मेरे लिये वक्त। 
कोई क्यों मेरी चिंता करे। 
क्यों कि मैं तो गृहणी हूँ ना।


तारीख: 02.07.2017                                    प्रमिला चौधरी









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है