आओ,बात करते हैं
लेकिन अगर इसकी शुरुआत
तुम्हें शुरुआत से ही करनी है,
तो थोड़ा सा ठहर जाते हैं
क्योंकि जहाँ से तुम शुरू करोगे,
किसी और का वहां अंत हुआ होगा
ये बताओ,
" क्या तुमने कभी समंदर के उस पार से होकर आती हवा को
अपने चेहरे पर आकर ठहरते देखा है ? "
" क्या तुमने शाम को ठीक तुम्हारी छत पर आकर आराम करते देखा है,
जैसे अपना चूल्हा जलाने के लिए सूरज से उसकी आग चुरा कर भाग रही हो ? "
" क्या तुमने उस इन्द्रधनुष को अपनी सीमाओं का ऐलान करते देखा है ? "
नहीं,शायद नहीं देखा होगा तुमने
क्योंकि,ये किसी हिन्दू-मुसलमान को नहीं,
दुनिया के भरोसे रहने वाले
इनसान को दिखता है
और ऐसा तब होता है,
जब बासी सी एक गर्मियों की दोपहर में,
बारिश होती है
जब तुम अपने घर की ओर चल पड़ते हो,
और हम क्षितिज की तलाश में,रात के पास
अच्छा ये बताओ,
" क्या कभी पौधों ने हवाओं को अपने बीच से
होकर गुज़रने से मना किया है ? "
" क्या कभी उस कागज़ की नाव ने,
नालों से बहते हुए बारिश के पानी में तैरने से मना किया है ? "
नहीं ना ?
अगर सब ऐसे ही होता,
तो हर चीज़ का अस्तित्व ख़त्म नहीं हो जाता ?
ठीक उसी प्रकार जैसे
बीती गर्मियों की एक बारिश में
तुम्हारा और हमारा...