भूलभुलैया

मन में अल्हड़ सी अभिलाषा, पगलाती भरमाती आशा 
कंचन-मृग जैसे सम्मोहन से, देती झूठा एक दिलासा

पलटे तभी सोच का पासा, मन को घेरे घोर निराशा 
भूलभुलैया में लुकती और छुपती जीवन की परिभाषा

 

सुख-दुःख की चौसर पर चलता, छलिया के हाथों का पासा 
सीढ़ी और साँप के खेले में रहता जीवन उलझा सा

छाया-धूप निराशा-आशा, मिलकर देती मन को झाँसा 
सुख की नदिया के तट पर भी, मन जाने क्यूँ रहता प्यासा 

 

जकड़ें बीते कल की यादें, छलता अगले कल का सपना
इन दो पाटों के बीच फँसा, पिसता  है वर्तमान ये अपना 

खोया अपना आज कहीं पर, एक यही तो था बस अपना 
जाने कब से देख रहे हम, सच्चे सुख का झूठा सपना 

 

कस्तूरी के पीछे पागल, मृग के जैसा है अपना मन 
मृगतृष्णा से भरमा,भूला-भटका दौड़ रहा पागल मन 

जल में थल और थल में जल के, भ्रम में डूबा अपना चिंतन
झूठे सुख की चकाचौंध ने छीना सच्चे सुख का हर पल 


तारीख: 29.10.2017                                    सुधीर कुमार शर्मा









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