दास्तान-ए-कलम

मेरी कलम आज फिर रोई थी,
तकदीर को कोसती हुई, मंजर-ए-मज़ार सोचती हुई,
दफ़न किये दिल में राज़, ख़यालों को नोंचती हुई।
जगा दिया उस रूह को जो एक अरसे से सोई थी,
मेरे अल्फाज़ मेरी जुबां हैं, मेरी कलम आज रोई थी।।

पलकों की इस दवात में अश्कों की स्याही लेकर,
वीरान दिल में कैद मेरी यादों की दुहाई देकर।
लिखती गई, दुखती गई, हर आह! पर रूकती गई,
खुदा की न कभी कदर की, पर तेरे नाम पर झुकती गई।
फिर लिख दिया मैंने वही, तू भी कभी मेरी ‘कोई’ थी,
वह ‘कोई’ मेरा गवाह है, मेरी कलम आज रोई थी।।

अब कलम मेरी आगे बढ़ी, कुछ और लिखने को चली,
लव के कवाद, फिर शाम-ए-याद, जो तेरी बाँहों में ढली।
तनहाइयां, न अंजुमन, खामोशियाँ, न बाकपन,
फुरकत-ए-तलब, चाहत-ए-अदब, वो तेरे लबों की कली।
तितिली जो इक मुझको मिली, जहाँ को भूल बैठे थे हम,
कुछ याद है गर मुझको अभी, वो तेरे शहर की गली।
बस दर-ब-दर फिरता रहा, नज़रों से मैं गिरता रहा,
महफ़ूज रखा जिनको कभी, वो तेरी यादें थीं भली।
जिस याद में मेरी कलम, कुछ देर तलक खोई थी,
फरियाद करूँ उस याद की, मेरी कलम आज रोई थी।।

दीदार-ए-दरख्त वादा किया, उस चौदवी की रात को,
रुख़सत हुए, ये कुरबत मेरी, न समझे तुम हालात को।
‘कुछ और भी कह न मुझे!’ थी इल्तेज़ा ये उस रात को,
कहता, ‘न जाओ छोड़कर’, गर सुनता वो मेरी बात को।
मुढ़ के इक दफा देखा भी न, उफ! कैसे थे जज़्बात वो,
रो रही थी मेरे साथ जो, बस थी सिर्फ इक कायनात वो।
ख़ाब-ए-मोती वो बिखर गए, जो माला मैंने पिरोई थी,
बिखरे ख़ाब ये कहते हैं, मेरी कलम आज रोई थी।।

फिर सवाल इक मुझको मिला, मेरी इसी किताब में,
क्यूँ अक्स अपना छोड़ गयी, वो मेरे हर इक खुआब में?
मिलता है रोज़ चाँद अब, लग के गले रुसवाई के,
सितारे भी अब जलने लगे, मेरे दिल के इस निसाब में।
मेरी वफ़ा का मुझे, ऐ-खुदा क्या सबब मिला,
लिखा न एक हर्फ़ भी, उसने मेरे जवाब में।
न अब कहीं वो मेरा है, न तब वह मेरी होई थी,
जो न हुआ उसे याद कर, मेरी कलम आज रोई थी।।


तारीख: 28.06.2017                                    एस. कमलवंशी









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