धुआं-धुआं सी जिंदगी
उठती है यूँ बुझे चिरागों से,
और खो जाती है .
अतीत की यादो को
जिन्दा करने की ख्वाहिश में,
गुमनाम इरादों में
सो जाती है .
कभी कोई तस्वीर बनाती है
और हवा के थपेड़े में
खो जाती है.
बढ़ा के हाथ
जो कोशिश की उसे पाने की,
पकड़ में आती है;
और फिर से निकल जाती है.
मैं भी नादान-था,
दौड़ा था इधर और उधर.
वो है की
ऊपर ही उठे जाती है.
अपने अंदाज से
उसने मुझे बंधे रक्खा,
कितने तस्वीर जहाँ के
बनाती है
और फिर
गुम हो जाती है.
वक़्त को रोक पाऊं अगर
यही सोंच कर
फिर से दीये जलाता हूँ,
रोशन कर दूं अपना जहाँ
इसी आस में भर माता हूँ.
ग़म के सवेरे ने मेरे
ख्वाब को जीने न दिया,
बुझे चिराग ने जख्मो को है
नासूर किया.
मुझे था इन्तजार जिस सहर का
सदियों से
उसकी आहट से आज
जिंदगी कतराती है.
उठते धुंए का
कोई मुकाम तो होगा
बुझे इरादों का
कोई अंजाम तो होगा
तभी आती है
कोई हंसी माचिस बन कर
बुझे चिरागों को मेरे
फिर से जला जाती है.
धुआं-धुआं सी जिंदगी
उठती है यूँबुझे चिरागों से
और खो जाती है.