हाँ, तुमने हत्या की है

(नवरात्र के अवसर पर एक सामाजिक चेतना जगाती यह कविता जीवन के हर मोड़ पर, उम्र के हर पड़ाव पर किसी न किसी रूप में शोषित, उत्पीड़ित मातृशक्ति की ओर से एक आरोप-पत्र बनकर, समाज की उस निर्मम,निष्ठुर,संकीर्ण मानसिकता को  कटघरे में खड़ा करती है जिसके लिए नारी केवल, " शयनेषु रंभा " है )


तुमने हत्या की है
हाँ, तुमने हत्या की है
कभी एक माँ के गर्भ में पलते-बढ़ते
नन्हे से अजात एक शैशव की
मातृत्व की मुठ्ठी में सिमटे
अनुभूतियों के वैभव की

हाँ, तुमने हत्या की है
बनकर कभी एक  क्रूर 
झंझावात निर्मम दानवता का
कर चूर-चूर हर करुण रूप 
बरबस मानवता का
मासूमियत की पंखुड़ियों में
सिमटे एक उपवन की
गुड़ियों के संग खेलते
बहलते एक बालमन की

हाँ, तुमने हत्या की है
कभी एक बचपन की दहलीज लाँघते
निर्मल मन के बीच झाँकते
वयःसंधि के सोपानों पर
चढ़ते-बढ़ते और कूदते-फाँदते
एक निश्छल, निष्पाप नवयौवन की
कभी कर तन को दागदार
मन के आँचल को तार-तार
कर मानवता को कलंकित
कर कुंठित चिररक्तरंजित
एक संपूर्ण जीवन की

हाँ, तुमने हत्या की है
असमय ही नष्ट करके 
एक अबोध बचपन की
कटु अनुभव से परिपक्व 
बना एक बालमन की
हँसते-खेलते बीते 
हर एक सुंदर कल की
और कभी कुछ भेदभाव की 
दीवारों में बाँँटकर
जीवनधारा में बूँद-बूँद 
बहते हर एक पल की
और कभी घेरकर 
वर्जना की लक्ष्मणरेखा में
भविष्य के हर एक 
स्वर्णिम स्वप्निल कल की

हाँ, तुमने हत्या की है,
कभी नवसृष्टि के नव अंकुर से
विकसित, पल्लवित,पुष्पित,
सुरभित एक डाली की
और कभी कर चीरहरण
एक अबला पांचाली की
कभी हर अग्निपरीक्षा में
सफल होकर निकलने पर भी
कर निर्वासित एक सीता की
इंद्र सम बहुरूपिया बनकर छलकर 
आहत कर तन-मन, कलंकित कर जीवन
फिर हृदय हीन गौतम बन आकर शिला बनाकर
एक अहिल्या परम पुनीता की

हाँ, तुमने हत्या की है
शोषण की चक्की में पीसकर
एक अन्नपूर्णा उमा की
चैतन्यरूपा शारदा की
एक गृहलक्ष्मी रमा की
खुद को जला दो परिवारों को
आलोकित करती शमा की
हर नारीमन में बसी हुई  
वात्सल्य की प्रतिमा माँ की
धरती माँ जैसी क्षमा की
मातृशक्ति की गरिमा की

हाँ, तुमने हत्या की है,
पीसकर भेदभाव और पक्षपात
के भारी भरकम दो पाटों में
बंद कर प्रतिबंधों और
पराधीनता के कपाटों में
एक मानवीय संवेदना की
एक अद्भुत दिव्य चेतना की
एक विश्वास के धरातल की
ममता से भीगे आँचल की
स्नेह के एक दर्पण की
सेवा, त्याग, समर्पण की
राधा-मीरा की भक्ति की
एक सावित्री की शक्ति की
स्नेह के एक सेतु की
सृष्टि के मूल हेतु की

हाँ, तुमने हत्या की है
कभी भय, उत्पीड़न,अपमान से
या व्यंग्यशरसंधान से
केवल नारी को मिले एक
मातृत्व के वरदान की
मातृशक्ति को आहत कर
उसमें बसते भगवान की
एक बेटी के अभिमान की
एक बहन के सम्मान की
एक बहू के स्वाभिमान
चिरसंगिनी अर्द्धांगिनी के
जीवन के अरमान की

नवरात्र में दुर्गा को
कन्या-रूप में बुलाने वालों,
हलवा-पूरी के भोग से
तृप्त कर जिमाने वालों,
यह भक्ति-भावना तुम सबकी
तब कहाँ खो जाती है
जब जगदम्बा अवतार धर
बेटी बन घर में आती है


 


तारीख: 12.10.2019                                    सुधीर कुमार शर्मा









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