हूँ आज उठा फलक नापता
दिमाग से दिमागी फितरत भांपता
अचेतन-अवचेतन का संगम
दिल में ज्वाला लिए क्रांति की
खड़ा हुआ हूँ बाहर से मैं
भीतर एक श्मशान हूँ
शायद मैं इंसान हूँ
हाँ शायद मैं इंसान हूँ।
घुस-घुस घर भीतर मन भीतर
खोजता हर एक इंसान हूँ
कोई ठोस है कोई खोखला
मैं खुद ही एक प्रमाण हूँ
रोता हूँ जब सोता भी हूँ
भेद जानने इन अंगारों का
अश्कों से उन्हें भिगोता भी हूँ
गिरता बचता आँखों से जो कहती
कहती है मैं शायद कर्ण समान हूँ पर,
शायद मैं इंसान हूँ
हाँ शायद मैं इंसान हूँ।
फिरता लिए उबाल खून में
हाँ मैं सबसे बलवान हूँ
भक्ति में हूँ डूबा-सा
ठिगना हूँ पर ऊंचा हूँ
धर्म नाम की छोटी विपदा से
भली भांति में सींचा हूँ
इस आस्था के भक्षक को मार के शायद
मैं बन बैठा खुद भगवान हूँ
पर मैं एक इंसान हूँ,
न न एक हैवान हूँ।
जानवर नही हूँ शेर हूँ मैं
यहाँ आओ न जाओ कहीं तुम
चारधाम, जेरूसलम ,अजमेर हूँ मैं,
दो-चार ही हैं जो भटके से
उनका लिए ही शमशेर हूँ मैं
आजा मेरी इस भूल भुलैया में तू भी
केवल नाम से ही तेरे परेशान हूँ मैं
शायद ,शायद इसलिए कहता हूँ
शायद ही एक इंसान हूँ मैं?