इस शहर का सच

इस शहर का सच ,
नहीं इन जगमगाती रातों में 
नहीं इन गगनचुम्बी इमारतों में,
न इन चमचमाते मॉल्स में 
जहाँ जमा होती है शहरी भीड़ हर रविवार 

इस शहर का सच है 
उन सड़कों पर
जहाँ दो गाड़ियों के बीच लगी हल्की खरोंच
उधेड़ देती है शराफत का मुखौटा 
उतर आते हैं दरिंदगी पर शरीफ लोग
नंगी हो जाती है मानवता 

इस शहर का सच है 
छुपा उस चार दिवारी के अन्दर
जहाँ औरत के भविष्य के सपनों पर
रोज रात चढ़ के मर्द बुझाते हैं अपनी प्यास 
और टीवी सीरियल्स के सुनहरे पात्रों में
हर रोज़ खोजती है वो अपना अस्तित्व 

इस शहर का सच है उन झोपड़ पट्टियों में
जहाँ अपनी चमड़ी झुलसा कर 
घर चलाते हैं बेबस मजदूर 
जहाँ दो निवाले को तरसते हैं देश के भविष्य 
और कचरे के ढेर में ढूंढते हैं अपने सपने 

इस शहर का सच है उन कोठों पर 
जहाँ मजबूर औरतों के जिस्म से 
वहशी नाखून खंरोचते हैं उनकी पहचान 
और छोड़ जाते हैं 
उनके जिस्म पर रंग बिरंगे शहरी निशान 

ये शहर नहीं 
एक मृग मरीचिका है
जो रेगिस्तान में प्यासे को लुभाता है 
जहाँ खिचे चले आते हैं मासूम ग्रामीण 
हर साल लाखों की तादाद में
और बन जाते हैं बनावटी शहरी 


तारीख: 30.06.2017                                    मुसाफ़िर









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